पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७२५

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७२२ पूंजीवादी उत्पादन . मजदूरों के अस्तित्व की शर्त का पूरा होना उतना ही मुश्किल हो जाता है, अर्थात् अपनी श्रम- शक्ति को दूसरे का धन बढ़ाने के लिये, या पूंजी के प्रात्म-विस्तार के लिये बेचना उनके लिये उतना ही कठिन हो जाता है। अतः यह तय कि उत्पादन के साधन और श्रम की उत्पादकता उत्पादक जन-संस्था की अपेक्षा ज्यादा तेजी से बढ़ती है, पूंजीवादी समाज में इस उल्टे रूप में व्यक्त होता है कि श्रमजीवी जन-संख्या उन परिस्थितियों की अपेक्षा सदा ज्यादा तेजी से बढ़ती है, जिनमें पूंजी इस वृद्धि का अपने प्रात्म-विस्तार के लिये उपयोग कर सकती है। भाग ४ में सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का विश्लेषण करते हुए हमने यह देखा था कि पूंजीवादी समाज के भीतर श्रम की सामाजिक उत्पादकता को बढ़ाने के सारे तरीके अलग- अलग मजदूर का गला काटकर अमल में पाते हैं। उत्पादन का विकास करने के सारे साधन उत्पादकों पर प्राषिपत्य जमाने तथा उनका शोषण करने के सापनों में बदल जाते हैं, का अंग-भंग करके उसको मनुष्य का एक अपक्षण बना देते हैं, उसको किसी मशीन का उपांग मात्र बना देते हैं, मजदूर के लिये उसके काम का सारा पाकर्षण खतम कर देते हैं तवा उसे एक घृणित श्रम में परिणत कर देते हैं। जिस हब तक श्रम-झ्यिा में विज्ञान का एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में समावेश होता जाता है, उसी हब तक उत्पादन के विकास के ये साधन मजबूर को श्रम-क्रिया की बौद्धिक क्षमतामों दूर करते जाते हैं। मजबूर जिन परिस्थितियों में काम करता है, वे उनको विकृत कर देते हैं। वे श्रम-क्रिया के दौरान में मजदूर को एक ऐसी निरंकुशता के प्राचीन बना देते हैं, जो अपनी तुच्छता के कारण और भी अधिक घृणित होती है। वे उसके पूरे जीवन काल को श्रम-काल में बदल देते हैं और उसकी पत्नी र बच्चों को भी पूंजी के रख के नीचे कुचले जाने के लिये ला पटकते हैं। लेकिन अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के सारे तरीके साथ ही संचय के भी तरीके होते हैं, और संचय का जब कभी विस्तार होता है, तो वह इन तरीकों को और विकसित करने का साधन बन जाता है। प्रतः इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिस अनुपात में पूंजी का संचय होता जाता है, उसी अनुपात में मजदूर की हालत, - उसको चाहे ज्यादा मजदूरी मिलती हो, चाहे कम,-बिगड़ती जाती है। अन्त में, वह नियम, जो सापेक अतिरिक्त जन-संख्या या प्रौद्योगिक रिसर्व सेना का संचय के विस्तार और तेजी के साथ सदा संतुलन स्थापित किया करता है, मजबूर को पूंजी के साथ इतनी मजबूती के साथ जड़ देता है, जितनी मजबूती के साथ बल्कन की बनायी हुई कीलें भी प्रोमीषियस को पट्टान के साथ नहीं जड़ सकी थीं। पूंजी के संचय के साथ-साथ इस नियम के फलस्वरूप गरीबी का भी संचय होता जाता है। इसलिये, यदि एक छोर पर बन का संचय होता है, तो उसके साथ-साथ दूसरे छोर पर,-यानी उस वर्ग के छोर पर, बो खुब अपने मन की पैदावार को पूंजी के म में तैयार करता है,-गरीबी, यातनापूर्ण परिमन, दासता, मनान, पाशविकता और मानसिक पतन का संचय होता जाता है। पूंजीवादी संचय के इस प्रात्म-विरोधी स्वस्म' की प्रशास्त्रियों ने अनेक प्रकार से व्याख्या 1 "De jour en jour il devient donc plus clair que les rapports de produc- tion dans lesquels se meut la bourgeoisie n'ont pas un caractère un, un carac- tère simple, mais un caractère de duplicité; que dans les mêmes rapports dans lesquels se produit la richesse, la misère se produit aussi; que dans les mêmes