पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७३१ . . ... "1 सरकारी हित-अहित का कोई ज्याल नहीं पा, इसलिये उन्होंने साफ-साफ यह कह दिया है कि "बाहिर है, में इससे इनकार नहीं करता कि (पिछले बस वर्षों में) पूंजी की जो वृद्धि हुई है, उसके फलस्वरूप नकद मजदूरी में इजाफा हुमा है, लेकिन ऊपर से देखने में जो यह लाभ हमा है, वह काफी हद तक बेकार साबित हुमा है, क्योंकि जीवन के लिये प्रावश्यक बहुत सी वस्तुएं अधिकाधिक महंगी होती जा रही है" (प्रोफेसर फोसेट का ख्याल है कि बहुमूल्य धातुओं के मूल्य में गिराव पा जाने के कारण इन वस्तुओं के दाम बढ़ते जा रहे हैं)..."धनी तेजी के साथ और भी धनी बनते जा रहे हैं (the rich grow rapidly richer), जब कि प्रौद्योगिक वर्गों की सुख- सुविधाओं में कोई प्रगति दृष्टिगोचर नहीं होती . उनको (मजदूरों को) जिन व्यापारियों का कर्जा देना होता है, वे उनके एक तरह से गुलाम बन जाते हैं। काम के दिन और मशीनों सम्बन्धी अध्यायों में पाठक देख चुके हैं कि ब्रिटिश मजबूर- वर्ग ने किन परिस्थितियों में सम्पत्तिवान वर्गों के लिये "पन और सत्ता की मदोन्मत कर देने वाली वृद्धि" की थी। वहां हमने मजदूर के केवल सामाजिक कार्य पर विचार किया था। लेकिन संचय के नियम का पूरी तरह स्पष्टीकरण करने के लिये हमें इसपर भी विचार करना चाहिये कि वर्कशाप के बाहर उसकी क्या हालत है और भोजन तथा निवास स्थान की दृष्टि से उसकी क्या बशा है। स्थानाभाव के कारण हम यहां पर केवल प्रौद्योगिक सर्वहारा के सबसे कम मजदूरी पाने वाले हिस्से पर, और खेतिहर मजदूरों पर ही विचार करेंगे; ये दोनों हिस्से मिलकर मजदूर-वर्ग का अधिकांश हो जाते हैं। लेकिन उसके पहले दो शब्द सरकारी मुहताजों के बारे में, या मजबूर-वर्ग के उस भाग के बारे में कह दिये जायें, जो जिन्दा रहने की शर्त पूरी करने में (यानी अपनी श्रम-शक्ति बेचने में) असमर्ष है और जो सार्वजनिक भील के सहारे एड़ियां रगड़ रहा है। १८५५ में ग्लैड्स्टन के १८६३ और १८६४ के बजट-भाषणों में जो इतनी सारी परस्पर विरोधी बातें दिखाई देती हैं, उनके लिये एक अंग्रेज लेखक ने बोयलियो (Boileau, "Deuores", खण्ड १, London, 1780, पृ० ५३) की निम्न पंक्तियां उद्धृत की है : "Voilà l'homme en effet. Il va du blanc au noir, Il condamne au matin ses sentiments du soir. Importun à tout autre, à soi-même incommode, Il change à tout moment d'esprit comme de mode." ("यह देखो, वह इंसान कि जो पल भर में रंग बदलता है। संध्या की अपनी बातों का प्रातः ही खंडन करता है। बन शील-विनय की मूर्ति स्वयं के हित का अनहित करता है। हर घड़ी बदलते फैशन सा मन को हर घड़ी बदलता है।) ("The Theory of Exchanges, &c." ('मुद्रा के बाजारों का सिद्धान्त, इत्यादि'), London, 1864, पृ० १३५) 1H. Fawcett, उप० पु०, पृ० ६७-८२ । जहां तक फुटकर दूकानदारों पर मजदूरों की बढ़ती हुई निर्भरता का सम्बंध है, वह इस बात का नतीजा है कि मजदूरों की नौकरी के मामले में अक्सर उतार-चढ़ाव पाता रहता है और बीच-बीच में उनकी नौकरी छूट जाती है।
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