पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७४५ 1. . ताबाद काफी बड़ी है। कारण कि हर परिवार इस रोग के समाचार को जहां तक सम्भव होता है, छिपाकर रखने का प्रयत्न करता है।" कोयला-सानों तथा अन्य प्रकार की सानों में काम करने वाले मजदूर बिटिश सर्वहारा के सब से अच्छी मजदूरी पाने वाले हिस्सों में पाते हैं। उनको अपनी मजबूरी की क्या क्रीमत पुकानी पड़ती है, यह हम पहले एक पृष्ठ पर देख चुके हैं। यहां पर मैं केवल उनके रहने के स्थानों पर एक सरसरी नबर गलना चाहता हूं। सामान्यतया, जो भी किसी खान का उपयोग करता है, वह चाहे उसका मालिक हो, चाहे उसने ठेके पर मालिक से सान ले रखी हो, वह सदा अपने मजदूरों के लिये कुछ मॉपड़े बनवाता है। मजदूरों को रहने के लिये झोपड़े और माग जलाने के लिये कोयला "मुफ्त में मिल जाते हैं, अर्थात् ये वस्तुएं उनकी मजदूरी का एक ऐसा हिस्सा होती है, जो उनको बीचों की शकल में दे दिया जाता है। जिनको इस तरह के मोपड़ों में रहने की जगह नहीं मिलती, उनको प्रति वर्ष ४ पौण्ड मुनाव के तौर पर मिल जाते हैं। सानों वाले इलाकों की पावादी बहुत तेजी से बढ़ती है। उसमें एक तो खुब खान-मजदूर होते हैं। दूसरे, वे तमाम कारीगर, दूकानदार भावि होते हैं, वो सान-मजदूरों के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं। भूमि के लगान की दरें बहुत ऊंची होती है, क्योंकि वहां भी पावावी धनी होती है, वहां पाम तौर पर ऐसा ही होता है। इसलिये मालिक यह कोशिश करता है कि लान के मुंह के बिल्कुल नजदीक, कम से कम रकबे में केवल इतने झोपड़े बनाकर खड़ा कर दें, जो उसके मजदूरों और उनके परिवारों को ठसाठस भरने के लिये जरूरी हों। यदि पड़ोस में नयी साने खुल जाती हैं या पुरानी साने फिर काम करने लगती है, तो पावादी का दबाव बढ़ जाता है। मोपड़े बनाने में केवल एक ही बात का महत्व होता है। वह यह कि पूंजीपति को हर ऐसे खर्च से, जो नितान्त अपरिहार्य नहीं है, "परिवर्जन" करना पड़ता है। ग० जूलियन हन्टर ने बताया है: "नीर्षम्बरलग और रहम की कोयला-सानों से सम्बंधित कोयला निकालने बालों तथा अन्य मजदूरों को जिस तरह के घरों में रहना पड़ता है, कुल मिलाकर शायद उनसे - . उप० पु०, पृ० १८, नोट। -चैपेल-मां-ले-फ़िथ यूनियन के सहायता-अफ़सर ने रजिसदार- जनरल को निम्नलिखित रिपोर्ट दी है : "डवहोल्स में चूने की राख (चूने के भट्ठों के फेंक हुए कचड़े) के एक बड़े टीले को कई जगहों पर थोड़ा-थोड़ा खोद डाला गया है। इस तरह जो गढ़े बन गये है, उनका रहने के स्थान की तरह इस्तेमाल किया जाता है । उस टीले के पड़ोस में आजकल जो रेल की लाइन बिछायी जा रही है, उसपर काम करने वाले मजदूर तथा अन्य लोग इन गढ़ों में रहते हैं। ये गड़े बहुत छोटे और सीलन से भरे हैं। उनमें न तो गंदा पानी बाहर निकलने के लिये नालियां हैं और न ही उनके पास-पास पाखाने हैं। और साफ़ हवा के अन्दर माने का इन गढ़ों में कोई भी रास्ता नहीं है। सिर्फ छत में एक सूराख होता है, जो धुमां बाहर निकालने की चिमनी की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इसका नतीजा यह है कि कुछ समय से इन (गढ़ों में रहने वालों) में चेचक फैली हुई है और उनमें से कुछ की उससे मृत्यु भी हो गयी है।" (उप० पु., नोट २) 'भाग ४ के अन्त में जो विस्तृत विवरण हमने दिया है, उसका सम्बंध विशेष रूप से कोयला-बानों के मजदूरों से है। धातु की बानों के मजदूरों की हालत और भी खराब है । उसके बारे में देखिये १८६४ के Royal Commission (शाही आयोग) की रिपोर्ट, जो बहुत ही ईमानदारी के साथ तैयार की गयी है।
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