७४८ पूंजीवादी उत्पादन . में सम्पूर्ण होने वाला था। परन्तु पटरियों के इलाकों में कपास के काल में पहले ही संकट की सी परिस्थिति पैदा कर दी। उसके कारण बहुत सी पूंजी अपने सामान्य क्षेत्र से निकलकर मुद्रा की मण्डी के बड़े केनों में आ गयी, और इसलिये संकट ने इस बार विशेष रूप से वित्तीय रूप धारण कर लिया। १८६६ में यह संकट इस प्रकार प्रारम्भ हुमा कि लन्दन के एक बड़े बैंक का दिवाला निकल गया और उसके बाद फौरन अनगिनत ठग-कम्पनियां ठप्प हो गयीं। लन्दन में उद्योग की जिन बड़ी शालाओं पर यह विपत्ति पायी, उनमें से एक पी लोहे के जहान बनाने की शाला। इस धंधे के मालिकों ने व्यवसाय की तेजी के दिनों में न केवल अंपाष पति- उत्पादन किया था, बल्कि इसके अलावा उन्होंने मागे के लिये भी बड़े-बड़े सौदे कर रहे थे। उन्हें यह पाशा थी कि उतनी ही बड़ी कमें उन्हें मागे भी उधार मिल जायेंगी। पर अब इसकी भयानक प्रतिक्रिया प्रारम्भ हुई। यह प्रतिक्रिया इस उद्योग में तवा लन्दन के अन्य उद्योगों में इस समय तक (यह मार्च १८६७ के अन्त की बात है) जारी है। मजदूरों की क्या बशा है, इसका कुछ प्राभास कराने के लिये में नीचे "Morning Star" के एक संवाददाता की रिपोर्ट उद्धृत कर रहा हूं, जिसने १८६६ के अन्त में मोर १८६७ के प्रारम्भ में उन मुख्य केनों की यात्रा की पी, जहां लोगों को सब से अधिक कष्ट पा: "पूर्वी क्षेत्र के पोपलर, मिलवाल, प्रीनविच, रेप्टोर, लाइमहाउस और फैनिंगटाउन नामक क्षेत्रों में कम से कम १५,००० मजदूर और उनके परिवार बिल्कुल कंगाली की हालत में रह रहे हैं, और ३,००० निपुण मिस्त्री (६ महीने तक कंगाली में रहने के बाद) मुहताबजाने के प्रांगन में पत्थर तोड़ रहे हैं... मुहताजलाने के फाटक तक पहुंचने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई, क्योंकि उसे एक भूबी भीड़ने घेर रखा था... ये लोग टिकट पाने के इन्तजार में, परन्तु टिकटों के वितरण में भी देर थी। मांगन एक बड़े चौक की तरह था, जिसके चारों पोर एक खुला हुमा शेर था। प्रांगन के मध्य मेंबड़ने बे, जिनपर बर्फ जम गयी थी। मध्य में ही, पोड़ी-थोड़ी जगहों को टट्टियां लगाकर घेर दिया गया था। वे भेड़ों के बारे जैसे लगते थे। अच्छे मौसम में वही लोग काम करते थे। पर जिस रोज में वहां पहुंचा, उस रोज इन बाड़ों में इतनी बर्फ जमी हुई थी कि उनके भीतर कोई बैठ नहीं सकता था। लेकिन मुले शेर में लोग पत्थर तोड़कर गिट्टी बनाने में व्यस्त थे। हर पादमी - 1" लन्दन के गरीबों में माम भुखमरी ("Wholesale starvation of the London Poor")... पिछले कुछ दिनों में लन्दन की दीवारों पर बड़े-बड़े पोस्टर लगाये गये है, जिनमें यह विचित्र घोषणा पढ़ने को मिलती है : 'मोटे बैल! भूखे इनसान! मोटे बैल अपने शीश महल से धनियों के विलास-गृहों में उनका पेट भरने के लिये गये हैं, जब कि भूखे इनसान अपने टूटे-फूटे झोंपड़ों में तड़प-तड़पकर जान दे रहे हैं।' इस प्रकार की प्रशुभ घोषणा वाले ये पोस्टर थोड़ी-थोड़ी देर बाद दीवारों पर चिपकाये जाते हैं। जैसे ही एक बार लगाये गये पोस्टरों को फाड़-फूड़ दिया जाता है या ढंक दिया जाता है, वैसे ही उन्हीं स्थानों पर या उसी प्रकार के अन्य सार्वजनिक स्थानों पर नये पोस्टर नजर आने लगते है... देखकर... उन गुप्त क्रान्तिकारी दलों की याद माती है, जिन्होंने फ्रांसीसी जनता को १७८६ की घटनामों के लिये तैयार किया था... इस समय, जब कि अंग्रेज मजदूर मय अपने बाल-बच्चों के ठण्ड और भूख से जान दे रहे हैं, करोड़ों के मूल्य का अंग्रेजी सोना-जो कि अंग्रेजी श्रम की उपज है - रूसी, स्पेनी, इटालवी और अन्य विदेशी उद्यमों में लगाया जा रहा है।" "Reynolds' Newspaper", January 20th, 1867 i यह सब .
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