माल - , . . है, उसकी इसके सिवा और किसी तरह गिनती नहीं होती कि उसके रूप में प्रमूर्त मानव-श्रम मूर्त हुमा है। कपड़े के मूल्य की अभिव्यंजना में सिलाई के श्रम की उपयोगिता कोट सीने में नहीं, बल्कि एक ऐसी वस्तु तैयार करने में है, जिसको देखते ही हम तुरन्त यह पहचान लेते है कि वह मूल्य है और इसलिये भम का जमाव है, किन्तु ऐसे श्रम का जमाव है, जिसका उस श्रम के साथ कोई भेद नहीं किया जा सकता, को कपड़े के मूल्य में मूर्त हुमा है। मूल्य के ऐसे वर्पण का काम करने के लिये यह जरूरी है कि सिलाई के श्रम में पाम तौर पर मानव-श्रम होने के उसके अमूर्त गुण के सिवा और कोई चीज न मलकने पाये। जैसे बुनाई में, वैसे ही सिलाई में भी मानव-श्रम-शक्ति खर्च होती है। इसलिये दोनों में हो मानव-अम होने का एक सामान्य गुण उपस्थित है, और इसलिये यह मुमकिन है कि कुछ परिस्थितियों में, जैसे कि मूल्य के उत्पादन में, उनपर केवल इसी दृष्टि से विचार किया जाये। इसमें कोई रहस्य की बात नहीं है। लेकिन मूल्य की अभिव्यंजना में नकशा एकदम उलट जाता है। मिसाल के लिये, इस तथ्य को किस प्रकार व्यक्त किया जाये कि जब बुनाई का श्रम कपड़े का मूल्य पैदा करता है, तब वह बुनाई का श्रम होने के नाते नहीं, बल्कि मानव-श्रम होने के अपने सामान्य गुण के नाते यह मूल्य पैदा करता है ? इस तथ्य को व्यक्त करने का सरल उपाय यह है कि बुनाई के भम के मुकाबले में वह दूसरे प्रकार का मूर्त श्रम (इस उदाहरण में सिलाई का भम) खड़ा कर दिया जाये, जो बुनाई के श्रम की पैदावार का सम-मूल्य पैदा करता है। जिस प्रकार कोट अपने शारीरिक रूप में मूल्य को प्रत्यक्ष अभिव्यंजना बन गया था, उसी प्रकार अब सिलाई का प्रम-श्रम का एक मूर्त रूप-सामान्य मानव-श्रम का प्रत्यक्ष प्रौर इनिय-गम्य साकार रूप बनकर सामने पाता है। प्रतएव, सम-मूल्य रूप की दूसरी विलक्षणता यह है कि मूर्त श्रम वह रूप बन जाता है, जिसके द्वारा उसका उल्टा, अमूर्त मानव-श्रम अपने को प्रकट करता है। लेकिन यह मूर्त प्रम-हमारे उदाहरण में सिलाई का श्रम -चूंकि अभिन्नित मानव-श्रम के रूप में गिना जाता है और सीधे तौर पर अभिन्नित मानव-श्रम ही माना जाता है, इसलिये वह अन्य किसी भी प्रकार के श्रम के सर्वसम है और इसलिये कपड़े में निहित श्रम के भी सर्वसम है। परिणामतः यद्यपि माल का उत्पादन करने वाले अन्य सभी श्रम की भांति यह भी निजी तौर पर काम करने वाले व्यक्तियों का भम होता है, तथापि यह साथ ही साथ प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक प्रकृति वाला श्रम भी होता है। इसी कारण उससे एक ऐसी पैदावार तैयार होती है, जिसका दूसरे मालों से सीधा विनिमय हो सकता है। प्रतएव, यह सम-मूल्य मकी तीसरी विलक्षणता है कि निजी तौर पर काम करने वाले व्यक्तियों का भम अपनी उल्टी चीज का-यानी प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक श्रम का-रूप धारण कर लेता है। यदि हम उस महान् विचारक की तरफ लौट चलें, जिसने चिन्तन , समाज एवं प्रकृति के इतने बहुत से मों का और उनमें मूल्य के रूप का भी सबसे पहले विश्लेषण किया था, तो सम-मूल्य रूप की अन्तिम दो विलमणतायें ज्यादा अच्छी तर हमारी समझ में मा जायेंगी। मेरा मतलब परन्तु से है। सबसे पहले अरस्तू स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि मालों का मुद्रा-रूम मूल्य के सरल म की-पर्थात् एक मान के मूल्य की किसी दूसरे माल के मूल्य के सम में अभिव्यंजना की-केवल विकसित अवस्था है। कारण, परस्त ने लिखा है कि
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