पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७६१ मजदूर को सबसे खराब भोजन मिलता है (is considerably the worst fed")। इस सम्बंध में नीचे दी गयी तालिका देखिये: पोसत ढंग का वयस्क खेतिहर व्यक्ति सप्ताह में कार्बन पौर नाइट्रोजन की कितनी मात्रा लाता है: कार्बन (प्रेन में) नाइट्रोजन (प्रेन में) इंगलैण्ड ४६.६७३ १,५९४ बेल्स ४८,३५४ २,०३१ स्कोटलेट ४८,९८० २,३४८ मायरलेस २,४३४ उप० पु०, पृ० १७ । अंग्रेज़ खेतिहर मजदूर को मायरलैण्डवासी खेत-मजदूर के मुकाबले में केवल चौथाई दूध और पाधी रोटी खाने को मिलती है। "Tour in Ireland" ("पायरलैण्ड की यात्रा') शीर्षक अपनी रचना में अर्थर यंग ने इस शताब्दी के प्रारम्भ में ही इस बात का जिक्र किया था कि पायरलैण्डवासी खेत-मजदूरों को बेहतर भोजन मिलता है। कारण बहुत साधारण था। पायरलैण्ड का गरीब काश्तकार इंगलैण्ड के धनी काश्तकार की अपेक्षा बहुत सहृदय होता है। जहां तक वेल्स का सम्बंध है, हमने ऊपर जो कुछ कहा है, वह केवल दक्षिण-पश्चिमी भाग पर लागू नहीं होता। वेल्स के तमाम डाक्टर इस बात से सहमत है कि प्राबादी की शारीरिक हालत के बिगड़ने पर तपेदिक, ग्रंथियों की सूजन आदि रोगों से मरने वालों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि होने लगती है; और सभी डाक्टरों की राय है कि माबादी की शारीरिक हालत गरीबी के कारण बिगड़ती है। "अनुमान है कि उस (बेत-मजदूर) के जीवन-निर्वाह पर पांच पेन्स रोजाना खर्च होते हैं, लेकिन बहुत से डिस्ट्रिक्टों में काश्तकार का" (जो खुद बहुत गरीब होता है) “इससे बहुत कम खर्च होता है ... नमक लगा हुमा जरा सा मांस या सुपर का गोश्त,.. जो सूखकर और नमक लगकर महोगनी की लकड़ी जैसा हो गया है और जिसको हजम करने में जितनी ताकत लग जाता है, उतनी उसको खाने से बदन में नहीं पाती,.. यह जरा सा मांस पाटा या सत्तू और गंदना घास के बने शोरबे या दलिये में मांस की खुशबू पैदा करने के लिये डाल दिया जाता है; और दिन के बाद दिन बीतते चले जाते हैं, और मजदूर कोरोज यही भोजन मिलता है।" उद्योगों के विकास का उसके लिये यह परिणाम हुआ कि इस सख्त ठण्डे और नम जलवायु में रहते हुए भी उसने "घर का कता गाढ़ा पहनना बन्द कर दिया और उसकी जगह सस्ता और तथाकथित सूती कपड़ा पहनने लगा" और शराब या बियर पीना बन्द करके तथाकथित चाय पीने लगा। "बेतिहर कई घण्टे तक हवा और पानी में काम करने के बाद अपने झोंपड़े में जाकर भाग तापने के लिये बैठ जाता है। माग या तो जीर्णक से जलायी जाती है और या कोयले के चूरे को मिट्टी में सानकर छोटे-छोटे गोले बना लिये जाते हैं और उनको जलाया जाता है, जिनसे कार्बोनिक और सलफ्यूरिक अम्ल का ढेरों घुमां निकला करता है। झोंपड़े की दीवारें गारे और पत्थरों की बनी होती है; फ़र्श उसी नंगी मिट्टी का होता है, जो सोंपड़ा बनने के पहले भी इसी हालत में थी। छत की जगह पर भारी फूस का एक ढीला सा छप्पर बंधा रहता है। झोंपड़े को गरम रखने के लिये हरेक सूराल बन्द कर दिया जाता है, जिसके फलस्वरूप सारा वातावरण जहरीली बदबू से भरा रहता है । इस वातावरण में मिट्टी . ,
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