भाग ८ तथाकथित आदिम संचय छब्बीसवां अध्याय प्रादिम संचय का रहस्य . . हम यह देख चुके हैं कि मुद्रा किस तरह पूंगी में बदल दी जाती है, किस तरह पूंजी से अतिरिक्त मूल्य पैदा किया जाता है और फिर प्रतिरिक्त मूल्य से किस तरह और पूंजी बना ली जाती है। लेकिन पूंजी का संचय होने के लिये अतिरिक्त मूल्य का पैदा होना पावश्यक है, अतिरिक्त मूल्य पैदा होने के लिये पूंजीवादी उत्पादन का होना जरूरी है और पूंजीवादी उत्पादन के अस्तित्व में पाने के लिये प्रावश्यक है कि मालों के उत्पादकों के हापों में पूंजी और मम-शक्ति की काफी बड़ी राशियां पहले से मौजूद हों। इसलिये, ऐसा लगता है, जैसे यह पूरी किया एक प्रपत्रक के भीतर चलती रहती है, जिससे बाहर निकलने का केवल एक यही रास्ता है कि हम यह मान लें कि पूंजीवादी संचय के पहले प्रादिम संचय (जिसे ऐडम स्मिथ ने "previous accumulation" ["पूर्वकालिक संचय"] कहा है) हुमा पा-यानी कभी एक ऐसा संचय हमा पा, बो उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का परिणाम नहीं था, बल्कि उसका प्रस्थान-बिन्तु पा। यह प्रादिम संचय अर्थशास्त्र में वही भूमिका अदा करता है, जो धर्म-शास्त्र में मूल पाप प्रवा करता है। पावन ने सेव को बना, इस कारण मनुष्य-जाति पाप के पंक में फंस गयी। उसकी व्युत्पत्ति बीते हुए जमाने की एक कथा सुनाकर स्पष्ट कर दी जाती है। इसी तरह, हमसे कहा जाता है कि बहुत, बहुत दिन बीते दुनिया में दो तरह के प्रावमी थे। एक मोर कुछ चुने हुए लोग थे, जो परिवमी , बुद्धिमान थे, और सबसे बड़ी बात यह कि मितव्ययी थे। दूसरी ओर ये काहिल और बदमाश, बो अपना सारा सत्त्व भोग-विलास और दुराधरण में लुटाये रे रहे थे। धर्म-शात्व का मूल पाप हमें यह निश्चित रूप से बता देता है कि प्रावमी को रोटी पाने के लिये एड़ी-चोटी का पसीना एक क्यों करना पड़ता है। लेकिन प्रशास्त्र के मूल पाप का इतिहास हमें बताता है कि कुछ ऐसे लोग भी क्यों होते है..जिनके लिये रोटी पाने के लिये मेहनत करना पावश्यक नहीं है। और, जाने दीजिये। सो, इस तरह पहली किस्म के लोगों ने धन संचय कर लिया और दूसरी किस्म के लोगों के पास अन्त में अपनी साल के सिवा कुछ भी बेचने के लिये नहीं बचा। और इसी मूल पाप का यह नतीजा हुमा कि दुनिया में ज्यादातर मावनी परीब है और दिन-रात मेहनत करने बावजूद पाव भी उनके पास बेचने के लिये अपने तन के सिवा और कुछ नहीं है। पौर
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