पादिम संचय का रहस्य ७६९ यही कारण है कि थोड़े से लोगों के पास सारा धन है, और हालांकि इन लोगों ने बहुत दिन पहले काम करना बन्द कर दिया था, पर फिर भी यह धन बराबर बढ़ता ही जाता है। सम्पत्ति की हिमायत में हमें हर रोज इस तरह की नीरस और बचकाना बकवास सुनायी जाती है। मिसाल के लिये, मोशिये पिये में इतना प्रात्मविश्वास था कि उन्होंने एक राज- नेता के समस्त गाम्भीर्य के साथ उस फ्रांसीसी कौम के सामने यह बात दुहरायी थी, जो किसी समय एक बड़ी प्रतिभाशाली (spirituel) क्रोम पी। जैसे ही कहीं पर सम्पत्ति का सवाल उठ बड़ा होता है, वैसे ही यह घोषणा करना हरेक पादमी का पुनीत कर्तव्य बन जाता है कि शिशु का बौद्धिक भोजन ही हर मायु और विकास की प्रत्येक अवस्था में मनुष्य की सबसे अच्छी खुराक होता है। यह बात सर्वविदित है कि वास्तविक इतिहास में देश जीतने, दूसरों को गुलाम बनाने, गकालनी, हत्या और संक्षेप में कहें, तो बल-प्रयोग की प्रमुख भूमिका है। लेकिन प्रशास्त्र के मधुर इतिहास में बाबा भाबम के जमाने से केवल सुन्दर बातों की ही चर्चा है। उसके अनुसार तो सबा केवल न्यायोचित अधिकार और "श्रम" से ही धन एकत्रित हुमा है,-हां, "चालू साल" की बात हमेशा दूसरी रहती है। सच्ची बात यह है कि प्राविम संचय जिन तरीकों से हुआ है, वे और कुछ भी हों, सुन्दर हरगिज नहीं थे। जिस तरह उत्पादन के साधन तथा जीवन-निर्वाह के साधन खुब अपने में पूंनी नहीं होते, उसी तरह मुद्रा और माल भी खुद अपने में पूंजी नहीं होते। उनको तो पूंजी में मान्तरित करना पड़ता है। परन्तु यह रूपान्तरण खुब केवल कुछ विशेष प्रकार की परिस्थितियों में ही हो सकता है। इन परिस्थितियों को केन्द्रीय बात यह है कि वो बहुत भिन्न प्रकार के मालों के मालिकों को एक दूसरे के मुकाबले में खड़ा होना चाहिये और एक दूसरे के सम्पर्क में पाना चाहिये। एक तरफ होने चाहिये मुद्रा, उत्पादन के साधनों और बीवन-निर्वाह के साधनों के मालिक, जो दूसरों को श्रम-शक्ति को खरीदकर अपने मूल्यों की राशि को बढ़ाने के लिये उत्सुक हों। दूसरी तरफ़ होने चाहिये स्वतंत्र मजदूर, वो खुद अपनी श्रम शक्ति बेचते हों और इसलिये जो मम बेचते हों। इन मजदूरों को इस बोहरे अर्थ में स्वतंत्र होना चाहिये कि वे न तो वासों, कृषि-वासों मादि की भांति खुब उत्पादन के साधनों का एक अंश हों और न ही खुद अपनी जमीन बोतने वाले किसानों की भांति उत्पादन के सापन उनको सम्पत्ति हों, इसलिये उत्पादन के हर प्रकार के साधनों से बिल्कुल मुक्त होते हैं, और उनके सिर पर किसी भी प्रकार के खुब अपने उत्पादन के साधनों का बोझा नहीं होता। मालों की मन्दी में इस प्रकार का ध्रुवण हो जाने पर पूंजीवादी उत्पादन के लिये पावश्यक मूल-भूत परिस्थितियां तैयार हो जाती हैं। पूंजीवादी उत्पादन के लिये यह प्रावश्यक होता है कि मजदूर जिन साधनों के द्वारा अपने मन को मूर्त रूप दे सकते हैं, उनपर मजबूरों का तनिक भी स्वामित्व न रहे और इस प्रकार के स्वामित्व से मजदूरों का बिल्कुल अलगाव हो जाये। अब एक बार पूंजीवादी उत्पादन अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, तो फिर वह न सिर्फ इस अलगाव को कायम रखता है, बल्कि उसका बढ़ते हुए पैमाने पर लगातार पुनरुत्पादन करता जाता है। इसलिये, पूंजीवादी व्यवस्था के वास्ते रास्ता तैयार करने वाली किया केवल वही किया हो सकती है, वो मजदूर से उसके उत्पादन के साधनों का स्वामित्व छीन ले, बो एक मोर तो बीवन-निर्वाह और उत्पादन के सामाजिक साधनों को पूंजी में और, दूसरी मोर, प्रत्यक्ष उत्पादकों को मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों में बदल गले। प्रतः तवाकषित पारिम संचय उत्पादक को उत्पादन के साधनों से अलग कर देने की ऐतिहासिक . .
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