5o. पूंजीवावी उत्पादन . . . मिया के सिवा और कुछ नहीं है। वह माविम किया इसलिये प्रतीत होती है कि वह पूंजी और तदनुरूप उत्पादन-प्रणाली के प्रागैतिहासिक काल की अवस्था होती है। पूंजीवादी समाज का प्रार्षिक डांचा सामन्ती समान के मार्षिक ढांचे में से निकला है। बब सामन्ती समाज का प्राषिक डांचा. छिम-भिन्न हो जाता है, तो पूंजीवादी ढांचे के तत्व उन्मुक्त हो जाते हैं। प्रत्यक्ष उत्पादक, या मजबूर, केवल उसी समय अपनी देह को बेच सकता था, जब वह घरती से न बंधा हो और किसी अन्य व्यक्ति का बास या कृषि-पास न हो। इसके अलावा, श्रम-शक्ति का स्वतंत्र विक्रेता बनने के लिये, जो जहाँ श्रम-शक्ति की मांग हो, वहीं पर उसे बेच सके, यह भी प्रावश्यक था कि मजदूर को शिल्पी संघ के शासन से, सोसतर मजदूरों तवा मजदूर कारीगरों के लिये बनाये गये शिल्पी संघों के नियमों से और उनके मन के काययों की सकावटों से मुक्ति मिल गयी हो। प्रतः वह ऐतिहासिक किया, जो उत्पादकों को मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों में बदल देती है, एक मोर तो इन लोगों को कृषि-वास- प्रथा से तथा शिल्पी संघों के बंधनों से प्राचार कराने की क्रिया प्रतीत होती है, और हमारे पूंजीवादी इतिहासकारों को उसका केवल यही पहलू नबर पाता है। लेकिन, दूसरी मोर, इस तरह जिन लोगों को नयी स्वतंत्रता मिलती है, वे केवल उसी हालत में अब अपने विक्रेता बनते हैं, जब पहले उत्पादन के सारे साधन उनसे छीन लिये जाते हैं और पुरानी सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत उनको जीवन निर्वाह की जितनी प्रतिभूतियां मिली हुई थीं, जब वे उन सबसे बंचित कर दिये जाते हैं। और इस क्रिया की, इस सम्पत्ति-अपहरण की कहानी मनुष्य- जाति के इतिहास में रक्तात्त एवं प्राग्नेय अमरों में लिखी हुई है। उपर इन नवे शक्तिमानों को, प्रौद्योगिक पूंजीपतियों को, न केवल बस्तकारियों के शिल्पी संघों के उस्तावों को विस्थापित करना चा, बल्कि बन के सोतों के स्वामी, सामन्ती प्रभुषों का भी स्थान छीन लेना चा। इस दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रौद्योगिक पूंजीपतियों को सामन्ती प्रभुषों तथा उनके अन्यायपूर्ण विशेषाधिकारों के विक्ड और शिल्पी संघों तवा उत्पादन के स्वतंत्र विकास एवं मनुष्य द्वारा मनुष्य के स्वच्छंद शोषण पर इन संघों द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों के विरुद्ध सफलतापूर्वक संघर्ष करके सामाजिक सत्ता प्राप्त हुई है। लेकिन उद्योग के बनी सरवारों को तलवार केपनी सरवारों का स्थान छीन लेने में यदि सफलता मिली, तो केवल इसलिये कि उन्होंने कुछ ऐसी घटनाओं से लाभ उठाया, जिनकी उनपर कोई जिम्मेवारी नवी। और उन्होंने ऊपर उठने के लिये उतने ही घटिया हरकों का प्रयोग किया, जितने घटिया हकमों का रोम के मुक्त वासों ने अपने स्वामियों का स्वामी बनने के लिये प्रयोग किया था। जिस विकास-कम के फलस्वरूप मजदूरी पर काम करने वाले महबूर और पूंजीपति दोनों का जन्म हुमा है, उसका प्रस्थान-बिंदु मजदूर की पुलामी पा। प्रगति इस बात में हुई पी कि इस पुलामी का सबबल गया था और सामन्ती शोषण पूंजीवादी शोषण में पान्तरित हो गया था। इस विकास-पान को समलने के लिये हमें बहुत पीछे जाने की परत नहीं है। मपि पूंजीवादी उत्पादन की शुम्मात के कुछ स्वतःस्फूर्त प्रारम्भिक चिन्ह हमें इसे मुक्के डंग से भूमध्य-सागर के कुछ नगरों में १४ी या १५ वीं शताब्दी में भी मिलते है, तापि पूंजीवादी युग का भीगणेश १६ वीं शताब्दी से ही हुमा है। पूंजीवाद केवन नहीं मानों में प्रकट होता है, जहां पिवास-प्रथा बहुत दिन पहले समाप्त कर दी गयी है और नहीं
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