पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/८११

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505 पूंजीवादी उत्पादन अधिक स्थायी परिणाम नहीं थे। वर्ष की सम्पत्ति भू-सम्पत्ति की परम्परागत व्यवस्था का पार्मिक माधार बनी हुई थी। उसके पतन के साथ ही इस व्यवस्था का कायम रहना भी असम्भव हो गया। है। साथ ही यह बात भी साफ़ कर दी जानी चाहिये कि जब तक कोई गरीब भादमी उपर्युक्त जेलखाने में बन्द कर दिये जाने के लिये तैयार नहीं होगा, तब तक उन्हें यह अधिकार रहेगा कि उसे किसी भी तरह की प्रार्थिक सहायता न दें। इस योजना के प्रस्तावकों का विचार है कि पास-पास की काउण्टियों में ऐसे अनेक प्रादमी मिलेंगे, जो श्रम करने को तैयार नहीं हैं और जिनके पास इतने साधन या इतनी साख भी नहीं है कि श्रम किये बिना रहने के उद्देश्य से ("so as to live without labour") कोई फ़ार्म या जहाज ले सकें, और इसलिये जो, सम्भव है कि इस सम्बंध में इलाके के सामने कोई बहुत लाभदायक सुझाव रखने को तैयार हों। यदि गरीबों में से कोई पादमी ठेकेदार की देखरेख में मर जाता है, तो इसका पाप ठेकेदार के सिर पर पड़ेगा, क्योंकि इलाका तो उसे ठेकेदार को सौंपकर अपना कर्तव्य पूरा कर चुका होगा। लेकिन हमें डर है कि मौजूदा कानून (एलिजाबेथ के राज्य-काल के ४३ वें वर्ष में बनाया गया कानून) इस तरह का विवेकसंगत कदम (prudential measure) उठाने की इजाजत नहीं देगा। मगर आपको मालूम होना चाहिये कि इस काउण्टी के और पड़ोस की 'ख' नामक के काउण्टी बाक़ी freeholders (माफ़ीदार) अपने भाईबन्दों को एक ऐसे कानून का प्रस्ताव करने की सलाह देने के लिये बड़ी आसानी से तैयार हो जायेंगे, जिसमें किसी व्यक्ति को गरीबों को ताले में बन्द करके उनसे काम लेने का ठेका देने की व्यवस्था हो और जिसके जरिये यह घोषणा कर दी जाये कि जो व्यक्ति इस तरह ताले में बन्द होकर काम करने से इनकार करेगा, वह किसी भी प्रकार की सहायता पाने का अधिकारी नहीं होगा। प्राशा की जाती है कि इस प्रकार का कानून गरीब लोगों को सार्वजनिक सहायता मांगने से रोकेगा ("will prevent persons in distress from wanting relief") और इस तरह बस्तियों का सार्वजनिक खर्च कम हो जायेगा।" (R. Blakey, "The History of Political Literature from the Earliest Times” (1Co extant, 'प्राचीनतम काल से अब तक के राजनीतिक साहित्य का इतिहास'], London, 1855. खण्ड २ पृ० ८४-८५)-स्कोटलैण्ड में कृषि-दास-प्रथा का अन्त इंगलैण्ड की अपेक्षा कुछ शताब्दी बाद हुमा था। यहां तक कि १६९८ में भी साल्तून-निवासी फ्लेचर ने स्काट संसद में यह कहा था कि "स्कोटलैण्ड में भिखारियों की संख्या २,००,००० से कम नहीं समझी जाती । मैं सिद्धान्ततः प्रजातंत्रवादी हूं और फिर भी मैं इसकी एक यही दवा सुझा सकता हूं कि कृषि-दास-प्रथा को फिर से चालू कर दिया जाये और जो लोग खुद अपने जीवन-निर्वाह का कोई प्रबंध नहीं कर सकते, उन सब को दास बना दिया जाये।" ईडेन ने अपनी उपर्युक्त रचना ("The State of the Poor") के प्रथम खण्ड , अध्याय १के पृ०६० -६१पर लिखा है : “कृषि-दास-प्रथा के चलन में कमी पाने का युग ही वह युग था, जब मुहताजों का जन्म हुआ था। कल-कारखाने और वाणिज्य हमारे राष्ट्र के मुहताजों के दो जनक है।" हमारे उस सिद्धान्ततः प्रजातंत्रवादी स्काट की तरह ईडेन ने भी केवल यही एक गलती की है कि वह यह नहीं समझ पाये हैं कि खेतिहर मजदूर यदि सर्वहारा और अन्त में मुहताज बन गया, तो इसका कारण यह नहीं था कि कृषि- दास प्रथा का अन्त कर दिया गया था, बल्कि इसका कारण यह था कि धरती पर बेतिहर मजदूर का कोई स्वामित्व नहीं रह गया था।-फ्रांस में यह सम्पत्ति-अपहरण एक और ढंग से सम्पन्न हुमा। इंगलैण्ड में जो काम गरीबों की सहायता के कानूनों ने किया था, वहां वही काम मूलां के पार्डिनेंस (१५७१) ने और १६५६ के फरमान ने किया। यद्यपि प्रोफेसर रोजर्स पहले प्रोटेस्टेंट कट्टरता के गढ़-प्रोक्सफोर्ड विश्वविद्यालय-में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे, तथापि उन्होंने "History of Agriculture' ('बेती का इतिहास' की भूमिका में इस तथ्य पर जोर दिया है कि चर्च-सुधार के फलस्वरूप साधारण लोग मुहताज बन गये है।