खेतिहर आबादी की जमीनों का अपहरण ८१९ . हिरण छोटे काश्तकारों का घरसार छीनते जा रहे हैं। इन कास्तकारों को अब पहले से भी स्थावा खराब समीन पर जाकर बसना होगा और पहले से भी अधिक भयानक गरीबी में बीवन बिताना पड़ेगा। हिरनों के जंगलों और मनुष्यों का सह-अस्तित्व असम्भव है। दोनों में से एक न एक को हट जाना पड़ेगा। पिछले पचीस साल से जंगल संख्या पौर विस्तार में जिस तरह बढ़ रहे हैं, उसी तरह अगले पचीस साल तक उन्हें और बढ़ने बीजिये, तो पूरी को पूरी गेल नाति अपने देश से निर्वासित हो जायेगी . पर्वतीय प्रदेश के भूस्वामियों में से कुछ के लिये हिरनों के जंगल बनाने की इच्छा ने एक महत्वाकांक्षा का रूप धारण कर लिया है ... कुछ शिकार के शौक के कारण यह काम करते हैं ... और दूसरे, जो अधिक व्यावहारिक उंग के लोग हैं, केवल मुनाफा कमाने की दृष्टि से हिरनों का धंधा करते हैं। कारण कि बहुत सी पहाड़ियों को भेड़ों की परागाहों के म में ठेके पर उठाने की अपेक्षा उनको हिरनों के जंगलों के रूप में इस्तेमाल करने में मालिकों को अधिक लाभ रहता है शिकार के लिये हिरनों का बंगल चाहने वाला शिकारी उसके लिये कोई भी रकम देने को तैयार रहता है। अपनी अली के प्रकार के सिवा वह इस मामले में और किसी चीज का बयाल नहीं करता पर्वतीय प्रदेश के लोगों पर जो मुसीबतें डायी गयी है, वे उन मुसीबातों से किसी तरह भी कम नहीं है, जिनका पहाड़ नौर्मन राजाओं की नीति के फलस्वल्प लोगों पर टूट पड़ा था। हिरनों के निवासस्थानों का विस्तार अधिकाधिक बढ़ता माता है, जब कि मनुष्यों को एक अधिकाषिक' संकुचित घेरे में बन्द किया जा रहा है . बनता के एक के बाद दूसरे अधिकार की हत्या हो रही है ... अत्याचार दिन-प्रति-दिन बढ़ते ही जा रहे है लोगों को उनकी जमीनों से हटाना और इधर-उपर विसर देना मालिकों के लिये एक निर्णात सिद्धान्त और सेती की मावश्यकता बन गया है। वे इनसानों की बस्तियों का उसी तरह सफाया करते हैं, जिस तरह अमरीका या अस्ट्रेलिया में परती बमीन पर बड़े हए पेड़ों या साड़ियों को हटाया जाता है, और यह कार्य बहुत ही खामोशी के साथ पौर बड़े कामकाची उंग से किया जाता है, इत्यादि।" ... . 'स्कोटलैण्ड के "deer forests' (हिरनों के जंगलों) में एक भी पेड़ नहीं है। नंगी पहाड़ियां हैं, जिनसे भेड़ों को भगा दिया गया है और हिरनों को लाकर बसा दिया गया है, और इन पहाड़ियों का. नाम रख दिया गया है "deer forests" (हिरनों के जंगल)। इस तरह, पेड़ लगाने और वन-रोपण की भी कोई व्यवस्था नहीं है।
- Robert Somers, "Letters from the Highlands; or the Famine of 1847"
( रोबर्ट सौमर्स, 'पर्वतीय प्रदेश के पत्र , अथवा १८४७ का मकाल'), London, 1848, पृ. १२-२८, विभिन्न स्थानों पर। ये पत्र शुरू में "The Times' में प्रकाशित हुए थे। १८४७ में गेल कौम को जिस प्रकाल की विभीषिका से गुजरना पड़ा था, उसका अंग्रेज अर्थशास्त्रियों ने, जाहिर है, यह कारण बताया था कि मावादी बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी। और यह भी नहीं, तो मावादी बाने-पीने की वस्तुओं की मावा की तुलना में तो अवश्य ही बहुत बढ़ गयी थी। जर्मनी में "clearing of estates" ("जागीरों की सफाई"), या, वहां की भाषा में, "Bauernlegen", बास तौर पर ३० वर्षीय युद्ध के बाद हुई थी, और उसके फलस्वरूप १७६० में भी कुरसाबसेन में किसानों के विद्रोह हुए थे। विशेष रूप से पूर्वी पर्मनी में इस तरह की सफ़ाई हुई। प्रशिया के अधिकतर प्रान्तों में पहली बार फेरिफ 52