८४६ पूंजीवादी उत्पादन बेनोमा और बेनिस में हो गया था, हस्तनिर्माण के युग में पाम तौर पर सारे योरप पर अधिकार कर लिया था। गोपनिवेशिक व्यवस्था ने अपने समुद्री व्यापार और व्यापारिक युद्धों के द्वारा इस प्रणाली के विकास में बनावटी ढंग से तेजी ला दी। चुनांचे, पहले-पहल इस प्रणाली ने हालेख में बड़ जमायी। राष्ट्रीय ऋण उठाने की प्रणाली ने, अर्थात् राज्य को-बह पाहे निरंकुश राज्य हो, चाहे वैधानिक राज्य और चाहे प्रजातांत्रिक राज्य-उधार देने की प्रणाली ने पूरे पूंजीवादी युग पर अपनी छाप गल दी। तथाकषित राष्ट्रीय धन का केवल एक ही भाग है, जो माधुनिक काल में सचमुच किसी देश की जनता के सामूहिक स्वामित्व में पा जाता है, वह है उसका राष्ट्रीय ऋण। इसी के एक अनिवार्य परिणाम के रूप में यह माधुनिक सिदान्त सामने माता है कि किसी राष्ट्र का ऋण जितना अधिक बढ़ता है, वह उतना ही अधिक धनी होता जाता है। सार्वजनिक प्रत्यय पूंजी का ईमान बन जाता है। और राष्ट्रीय ऋण उठाने की प्रणाली के प्रसार के साथ-साथ "पवित्र प्रात्मा" को निन्दा करने के अक्षम्य अपराध का स्थान राष्ट्रीय ऋण में विश्वास न रखने का अपराध ले लेता है। सार्वजनिक ऋण प्राविम संचय का एक सबसे शक्तिशाली साधन बन जाता है। वह मानो किसी जादुई छड़ी के इशारे से बंध्या मुद्रा में भी सन्तान पैदा करने की शक्ति उत्पन्न कर देता है और इस प्रकार उसे पूंजी में बदल लेता है। और इस परिवर्तन के लिये मुद्रा को उन तमाम मटों और खतरों में गलने की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती, जिनका उसको उद्योग में या यहां तक कि सूदखोरी में लगाये जाने पर भी अनिवार्य रूप से सामना करना पड़ता है। राज्य को कर्जा देने वाले असल में कुछ नहीं देते, क्योंकि वे बो रकम उपार देते हैं, वह सार्वजनिक बाँगें में सान्तरित कर दी जाती है, और ये बॉर बड़ी प्रासानी से बिक जाते है तथा इसलिये वे उन लोगों के हाथ में वही काम पूरा करते हैं, वो उतने ही मूल्य का नाद रुपया करता। इस प्रकार, इस प्रणाली का केवल यही परिणाम नहीं होता कि सरकारी बोंगें के वार्षिक व्याज के सहारे काहिली में बीवन बिताने वालों का एक वर्ग उत्पन्न हो जाता है, सरकार तथा जनता के बीच प्रातियों का काम करने वाले वित्त-प्रबंधकों के पास बिना किसी कष्ट के बोलत इकट्ठी हो जाती है और कर-वसूली का काम करने वालों, सौदागारों और कारखानेवारों का जन्म भी हो जाता है, जिनको प्रत्येक राष्ट्रीय जन का एक भाग पाकाश से गिरी हुई पूंजी के रूप में मिलने लगता है। इसके अलावा, राष्ट्रीय ऋण की प्रणाली के फलस्वरूप सम्मिलित पूंजी वाली कम्पनियां, हर प्रकार की विनिमयशील प्रतिभूतियों का लेन- देन, बट्टे का व्यापार, और संक्षेप में कहें, तो शेयर बाजार का सट्टा पारम्भ हो जाता है और घोड़े से माधुनिक बैंक-पतियों के प्राधिपत्य की नींव पड़ जाती है। राष्ट्रीय उपापियों से विभूषित बड़े-बड़े बैंक अपने जन्म के समय निजी हित में सट्टा खेलने वाले कुछ ऐसे व्यक्तियों के संघ मात्र बे, बो सरकारों की सहायता करने लगे थे और वो राज्य से प्राप्त विशेषाधिकारों के प्रताप से राज्य को मुद्रा उमार देने की स्थिति में । इसीलिये राष्ट्रीय जल के संचय का इन बैंकों की शेषर-पूंजी में उत्तरोत्तर होने वाली वृद्धि से अधिक प्रधान्त प्रमान और कोई नहीं है। इन बैंकों का पूर्ण विकास १६६४ में हमा, बब . .". विलियम कौबेट ने कहा है कि इंगलैण्ड में सभी सार्वजनिक संस्थानों को "शाही" संस्थानों का नाम दिया जाता है, लेकिन इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिये एक "राष्ट्रीय" ऋण (national debt) भी है।
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/८४९
दिखावट