पूंजीवादी उत्पादन . . - . प्रतएव, मालों का रहस्यमय रूप उनके उपयोग-मूल्य उत्पन्न नहीं होता। और न ही वह उन तत्वों के स्वभाव से उत्पन्न होता है, जिनसे मूल्य निर्धारित होता है। क्योंकि, पहली बात तो यह है कि श्रम के उपयोगी रूप, अथवा उत्पादक कार्रवाइयां चाहे जितने भिन्न प्रकार की क्यों न हो, यह एक शरीर-विज्ञान से सम्बंध रखने वाला तम्य है कि वे सब की सब मानव-शरीर की कार्रवाइयां होती हैं, और ऐसी हर कार्रवाई में, उसका स्वभाव और स्प चाहे जैसा हो, बुनियादी तौर पर मनुष्य का मस्तिष्क, स्नायु और मांस-पेशियां मावि खर्च होती हैं। दूसरे, यहाँ तक उस चीन का सम्बंध है, जिसके पापार पर मूल्य को परिमाणात्मक दृष्टि से निर्धारित किया जाता है, अर्थात् जहाँ तक इस खर्च की मियाद का- यानी श्रम की मात्रा का-सम्बंध है, यह बात बिल्कुल साफ है कि श्रम के परिमाण तथा गुण में स्पष्ट अन्तर होता है। समाज की सभी प्रवस्थानों में लोगों को इस बात में लाजिमी तौर पर दिलचस्पी रही होगी कि जीवन-निर्वाह के साधनों को पैदा करने में कितना श्रम-काल सर्च होता है, हालांकि विकास की हर मंजिल पर यह दिलचस्पी बराबर नहीं रही होगी। और माजिरी बात यह है कि जिस क्षण लोग किसी भी ढंग से एक दूसरे के लिये काम करने लगते हैं, उसी क्षण से उनका श्रम सामाजिक रूप धारण कर लेता है। तब श्रम की पैदावार मालों का रूप धारण करते ही एक जटिल समस्या कैसे बन जाती है? स्पष्ट है कि इसका कारण स्वयं यह माल-रूप ही है। हर प्रकार के मानव-श्रम की समानता बस्तुगत ढंग से इस प्रकार व्यक्त होती है कि हर प्रकार के श्रम की पैदावार समान रूप मूल्य होती है। श्रम-शक्ति के व्यय की उसकी अवषि द्वारा माप श्रम की पैदावार के मूल्य के परिमाण का रूप धारण कर लेती है; और अन्तिम बात यह कि उत्पादकों के पारस्परिक सम्बंध, जिनके भीतर ही उनके श्रम का सामाजिक स्वरूप अभिव्यक्त होता है, उनकी पैदा की हुई वस्तुओं के सामाजिक सम्बंध का रूप धारण कर लेते हैं। प्रतएव, माल एक रहस्यमयी वस्तु केवल इसलिये है कि मनुष्यों के श्रम का सामाजिक स्वरूप उनको अपने श्रम की पैदावार का वस्तुगत लक्षण प्रतीत होता है; क्योंकि उत्पादकों के अपने श्रम से जो कुल पैदावार पैदा हुई है, उसके साथ उनका सम्बंध उनको एक ऐसा सामाजिक सम्बंध प्रतीत होता है, जो स्वयं उनके बीच नहीं, बल्कि उनके श्रम से पैदा होने वाली वस्तुओं के बीच कायम है। यही कारण है कि श्रम से पैदा होने वाली वस्तुएं माल यानी ऐसी सामाजिक बस्तुएं बन जाती है, जिनके गुण इन्द्रियगम्य भी है और इनियातीत भी। इसी प्रकार किसी वस्तु से पाने वाला प्रकाश हमें अपनी प्रांत की प्रकाशीय स्नायु का मनोगत उत्तेजन नहीं प्रतीत होता, बल्कि मांस के बाहर की किसी चीज का वस्तुगत रूप मालूम पड़ता है। लेकिन देखने की क्रिया में तो हर सूरत में एक बीच से दूसरी चीन तक, बाहर वस्तु से मांस तक, सचमुच प्रकाश पाता है। इस क्रिया में भौतिक वस्तुओं के बीच एक भौतिक सम्बंध कायम होता है। लेकिन मालों के बीच ऐसा कुछ नहीं होता। वहां मालों के रूप में प्राचीन जर्मनों में जमीन मापने की इकाई उतनी जमीन होती थी, जितनी जमीन से एक दिन में फसल काटी जा सकती थी और जो Tagwerk, Tagwanne (jurnale, या terra jurnalis, या diornalis), Mannsmaad मादि कहलाती थी। (देखिये जी० एल० फ़ोन मारेर, "Einleitung zur Geschichte der Mark -, &c. Verfassung", München, 1854, पृ. १२९ पौर उससे मागे के पृष्ठ।)
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/८९
दिखावट