माल ८७ . । . वस्तुओं के अस्तित्व का और श्रम से पैदा होने वाली वस्तुओं के बीच पाये जाने वाले उस मूल्य के सम्बंध का, जो कि इन वस्तुओं को माल बना देता है, उनके शारीरिक गुणों से तथा इन गुणों से पैदा होने वाले भौतिक सम्बंधों से कोई ताल्लुक नहीं होता। वहां मनुष्यों के बीच कायम एक खास प्रकार का सामाजिक सम्बंध है, जो उनकी नवरों में वस्तुओं के सम्बंध का अजीबोगरीब रूप धारण कर लेता है। इसलिये, यदि इसकी उपमा खोजनी है, तो हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से डंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा। उस दुनिया में मानव- मस्तिष्क से उत्पन्न कल्पनाएं स्वतंत्र और जीवित प्राणियों जैसी प्रतीत होती है, जो पापस में एक दूसरे के साथ और मनुष्य-वाति के साथ भी सम्बंध स्थापित करती रहती हैं। मालों को दुनिया में मनुष्य के हाथों से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं भी यही करती है। मैंने इसे जड़- पूजा का नाम दिया है। श्रम से पैदा होने वाली वस्तुएं जैसे ही मालों के रूप में पैदा होने लगती है, वैसे ही उनके साथ यह गुण चिपक जाता है, और इसलिये यह जड़-पूजा मालों के उत्पादन से अलग नहीं की जा सकती। जैसा कि ऊपर दिये हुए विश्लेषण से स्पष्ट हो गया है, मालों को इस जड़-पूजा का मूल उनको पैदा करने वाले श्रम के अनोखे सामाजिक स्वरूप में है। एक सामान्य नियम के रूप में उपयोगी वस्तुएं केवल इसी कारण माल बन जाती हैं कि वे एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से काम करने वाले व्यक्तियों अथवा व्यक्तियों के दलों के निजी श्रम की पैदावार होती है। इन तमाम व्यक्तियों के निजी श्रम का जोर समाज का कुल श्रम होता है। अलग-अलग उत्पादक चूंकि उस वक्त तक एक दूसरे के सामाजिक सम्पर्क में नहीं पाते, जिस वक्त तक कि वे अपनी-अपनी पैदा की हुई वस्तुओं का विनिमय नहीं करने लगते, इसलिये हरेक उत्पादक के श्रम का विशिष्ट सामाजिक स्वल्प केवल विनिमय-कार्य में ही दिखाई बेता है और अन्य किसी तरह नहीं। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति का श्रम समाज के श्रम के एक भाग के रूप में केवल उन सम्बंधों द्वारा ही सामने प्राता है, जिनको विनिमय-कार्य प्रत्यक्ष ढंग से पैदा की गयी वस्तुओं के बीच और उनके परिये अप्रत्यक्ष ढंग से उनको पैदा करने वालों के बीच स्थापित कर देता है। इसलिए उत्पादकों को एक व्यक्ति के श्रम को बाकी व्यक्तियों के श्रम के साथ जोड़ने वाले सम्बंध कार्यरत अलग-अलग व्यक्तियों के प्रत्यक सामाजिक सम्बंध नहीं, बल्कि वैसे प्रतीत होते हैं, जैसे कि वे वास्तव में होते हैं,- अर्थात् वे व्यक्तियों के बीच बस्तुगत सम्बंध और वस्तुओं के बीच सामाजिक सम्बंध प्रतीत होते हैं। जब श्रम से पैदा होने वाली वस्तुओं का विनिमय होता है, केवल तभी वे मूल्यों के म में एक सम-रूप सामाजिक हैसियत प्राप्त करती हैं, जो उपयोगी वस्तुओं के रूप में उनके नाना प्रकार के अस्तित्व-मों से भिन्न होती है। मम से पैदा होने वाली किसी भी वस्तु का उपयोगी वस्तु तथा मूल्य में यह विभाजन केवल उसी समय व्यावहारिक महत्त्व प्राप्त करता है, जब विनिमय का इतना विस्तार हो जाता है कि उपयोगी वस्तुएं विनिमय करने के उद्देश्य से ही पता की जाती है और इसलिए मूल्यों की शकल में उनके स्वरूप का पहले से, यानी उत्पादन के दौरान में ही, ध्यान रखा जाता है। इस क्षण से ही हर अलग-अलग उत्पादक का मम सामाजिक दृष्टि से दोहरा स्वरूप प्राप्त कर लेता है। एक पोर तो उसको एक खास प्रकार के उपयोगी श्रम के रूप में किसी खास सामाजिक आवश्यकता को पूरा करना पड़ता है और इस तरह सब प्रारमियों के सामूहिक श्रम के प्रावश्यक अंग के रूम में, उस सामाजिक सम-विमानन की एक शाखा के रूप में अपने लिए स्थान बनाना पड़ता है, जो स्वयंस्फूर्त ढंग से पैरा हो गया है। . . .
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