पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२०१

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२०० पूंजी का आर्त - नहीं बना देता, फिर भी ऐसे उपकरण के रूप में उसकी भूमिका उसके अपेक्षाकृत टिकाऊ पदार्थ से निर्मित होने को आवश्यक बना देती है। अतः उसकी सामग्री का टिकाऊपन श्रम उपकरण के नाते उसके कार्य की शर्त और फलतः परिचलन के उस ढंग का भौतिक आधार है, जो उसे स्थायी पूंजी वनाता है। अन्य वातें समान हों, तो जिस पदार्थ का वह वना हुआ है, उसकी छीजन की न्यूनाधिक माना उस पर स्थायित्व की न्यूनाधिक मात्रा का ठप्पा लगाती है, अतः वह उसके स्थायी पूंजी होने के गुण से घनिष्ठ रूप में संवद्ध है। श्रम शक्ति में लगाये पूंजी अंश पर यदि केवल प्रचल पूंजी के दृष्टिकोण से , अतः स्थायी पूंजी के मुकावले रखकर विचार किया जाये और इसके फलस्वरूप यदि स्थिर तथा परिवर्ती पूंजी के भेद को स्थायी तथा प्रचल पूंजी के भेद के साथ मिला दिया जाये, तो- यह मानते हुए कि श्रम उपकरण की भौतिक यथार्थता उसके स्थायी पूंजी के चरित्र का एक आधार होता है,- स्थायी पूंजी की तुलना में उसके प्रचल पूंजीवाले स्वरूप के स्रोत को श्रम शक्ति में निवेशित पूंजी की भौतिक यथार्थता में देखना और इसके बाद फिर परिवर्ती पूंजी की भौतिक 'यथार्थता की सहायता से प्रचल पूंजी को निर्धारित करना स्वाभाविक ही होगा। मजदूरी पर लगाई जानेवाली पूंजी का असली तत्व स्वयं श्रम , क्रियाशील , मूल्य सृजक श्रम शक्ति, सजीव श्रम है, जिसका पूंजीपति निर्जीव , मूर्त श्रम से विनिमय करता है और अपनी पूंजी में समावेश करता है, और जो वह साधन है, एकमात्र साधन है, जिससे उसके हाथ में जो मूल्य है, वह स्वप्रसारवान मूल्य में बदल जाता है। किंतु स्वप्रसार की यह क्षमता पूंजीपति द्वारा नहीं वेची जाती। वह सदा उसकी उत्पादक पूंजी का एक घटक होती है, वैसे ही जैसे उसके श्रम उपकरण होते हैं ; वह कभी उसकी माल पूंजी का घटक नहीं होती, जैसे कि, उदाहरण के लिए, तैयार उत्पाद होता है, जिसे वह वेचता है। उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादक पूंजी के घटकों के नाते श्रम के उपकरण स्थायी पूंजी के रूप में श्रम शक्ति के प्रतिमुख नहीं होते , जैसे प्रचल पूंजी के रूप श्रम सामग्री तथा सहायक पदार्थों की भी उससे तद्रूपता नहीं होती। श्रम शक्ति इन दोनों के सामने एक वैयक्तिक उपादान के रूप में आती है, जब कि श्रम प्रक्रिया के दृष्टिकोण से कहा जायेगा कि वे वस्तुगत उपादान हैं। मूल्य की स्वप्रसार प्रक्रिया के दृष्टिकोण से कहा जायेगा कि ये दोनों ही श्रम शक्ति के प्रतिमुख होते हैं, जैसे परिवर्ती पूंजी स्थिर पूंजी के होती है। और यदि यहां एक भौतिक अंतर का उल्लेख किया जाये , जहां तक कि वह परिचलन प्रक्रिया को प्रभावित करता है, तो वह केवल यह है : मूल्य की प्रकृति से, जो मूर्त श्रम के अलावा और कुछ नहीं होती, क्रियाशील श्रम शक्ति की प्रकृति से , जो मूर्त रूप धारण करते श्रम के अलावा और कुछ नहीं होती, यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रम शक्ति जितने समय तक कार्य करती है, वह निरंतर मूल्य तथा वेशी मूल्य का निर्माण करती है ; श्रम शक्ति के पक्ष से जो चीज़ गति, मूल्य का सृजन लगती है, वह विराम की अवस्था में उसके उत्पाद के पक्ष से निर्मित मूल्य लगती है। यदि श्रम शक्ति ने अपना कार्य कर दिया है, तो फिर पूंजी में अव एक ओर श्रम शक्ति और दूसरी ओर उत्पादन साधन समाविष्ट नहीं रह जाते। श्रम शक्ति में जो पूंजी मूल्य लगाया गया था, वह अब ऐसा मूल्य है, जो (+वेशी मूल्य ) उत्पाद में जोड़ा गया था। प्रक्रिया को दोहराने के लिए उत्पाद को वेचना होगा और जो धन प्राप्त हो, उससे लगातार नई श्रम शक्ति खरीदनी होगी और उत्पादक पूंजी में उसका समावेश करना होगा। यही श्रम शक्ति में निवेशित . .. .