पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२५३

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२५२ पूंजी का प्रावतं के न्य में रहता है। किंतु पूंजीपति जानता है कि चालू कार्य अवधि के लिए उसे वापस आई पूंजी के इस भाग (४०० पाउंड ) का प्राधा, अथवा २०० पाउंड ही दरकार होंगे। इसलिए यह बाजार की हालत पर निर्भर करेगा कि वह इन २०० पाउंड को तुरंत अतिरिक्त उत्पादक पूर्ति में पूर्णत: अथवा अंशतः फिर बदल लेगा या बाजार के अधिक अनुकूल होने की आशा में द्रव्य पूंजी के रूप में पूर्णतः अथवा अंशतः बनाये रखेगा। दूसरी ओर कहना न होगा कि जो भाग ( २०० पाउंड ) मजदूरी पर व्यय होना है, उसे द्रव्य रूप में रहने दिया जाता है। पूंजीपति श्रम शक्ति को खरीदकर गोदाम में जमा करके नहीं रख सकता, जैसे कच्चे माल को रख सकता है। उसे उसका उत्पादन प्रक्रिया में समावेश करना होगा और हफ्ते के अंत में उसका भुगतान करना होगा। किसी भी सूरत में ३०० पाउंड की मुक्त हुई पूंजी में से ये १०० पाउंड मुक्त द्रव्य पूंजी का रूप धारण कर लेंगे, अर्थात कार्य अवधि के लिए उनकी ज़रूरत न होगी। अतः द्रव्य पूंजी के रूप में मुक्त होनेवाली पूंजी को कम से कम पूंजी के मजदूरी में निवेशित परिवर्ती भाग के बराबर होना चाहिए। अधिकतम रूप में उसके भीतर मुक्त हुई समस्त पूंजी का समावेश हो सकता है। वास्तव में वह अल्पतम और अधिकतम के बीच लगातार घटती- बढ़ती रहती है। यावर्त की क्रियाविधि मान से इस प्रकार मुक्त हुई द्रव्य पूंजी को (स्थायी पूंजी के क्रमिक पश्चप्रवाह द्वारा मुक्त द्रव्य पूंजी के तथा परिवर्ती पूंजी के लिए प्रत्येक श्रम प्रक्रिया में आवश्यक द्रव्य पूंजी के साथ ) उधार प्रणाली के विकसित होने के साथ एक महत्वपूर्ण भूमिका निवाहनी होती है, और इसके साथ ही इस प्रणाली का एक मूलाधार भी बनना होता है। मान लें कि हमारे उदाहरण में परिचलन काल ३ से घटकर २ हफ़्ते हो जाता है। यह कोई सामान्य परिवर्तन नहीं है, वरन कहिये कि समृद्धि के दिनों, भुगतान की कम अवधि , वगैरह के कारण पानेवाला परिवर्तन है। कार्य अवधि के दौरान ६०० पाउंड की जो पूंजी व्यय होती है, वह ज़रूरत से एक सप्ताह पहले वापस आ जाती है। अतः वह इस सप्ताह के लिए मुक्त हो जाती है। फिर कार्य अवधि के मध्य में पहले की तरह ३०० पाउंड ( उन ६०० पाउंड का एक भाग ) मुक्त हो जाते हैं, किंतु ३ के बदले ४ हफ्ते के लिए। इसलिए मुद्रा बाजार में एक हफ्ते के लिए ६०० पाउंड और ३ के बदले ४ हफ्ते के लिए ३०० पाउंड होते हैं। चूंकि इसका संबंध एक ही पूंजीपति से नहीं, अनेक से होता है और ऐसा विभिन्न व्यवसायों में भिन्न-भिन्न अवधियों के दौरान होता है, अतः वाज़ार में और भी सुलम द्रव्य पूंजी प्रकट हो जाती है। यदि यह स्थिति कुछ समय तक बनी रहे , तो जहां भी संभव होगा, उत्पादन का प्रसार होगा। उधार के द्रव्य से काम करनेवाले पूंजीपति मुद्रा बाजार से कम मांग करेंगे, जिससे वह ऐसे ही मंदा हो जायेगा, जैसे पूर्ति की बढ़ती से हो जाता है ; अथवा अंततः, जो राशियां क्रियाविधि के लिए फ़ालतू हो जाती हैं, वे निश्चित रूप से मुद्रा बाज़ार में डाल दी जाती हैं। परिचलन काल के ३ से २ हफ्ते में और फलत: यावर्त अवधि के 6 से ८ हपते में संकुचन के कारण कुल पेशगी पूंजी का १/६ भाग फ़ालतू हो जाता है। ६ हफ्ते की कार्य अवधि को अब ८०० पाउंड से वैसे ही अटूट चालू रखा जा सकता है, जैसे पहले ६०० पाउंड से रखा जाता था। अतः माल पूंजी के मूल्य का एक भाग , जो १०० पाउंड के बरावर है ; द्रव्य में फिर बदले जाने के माय द्रव्य पूंजी की अवस्था में ही बना रहता है और उत्पादन प्रक्रिया के