पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२८७

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पूंजी का प्रावर्त , क्योंकि हमागे लाना के अनुसार वह उत्पादक पूंजी का वह भाग है, जो व्यवसाय को एक निग्नित पैमाने पर कायम रखने के लिए जरूरी होता है। किंतु वह किस निधि से पेशगी दिया गया है, उससे जमीन-पासमान का फ़ळं पड़ जाता है। ख के प्रसंग में वह दरअसल उस पूंजी का माग है, जो मूलतः पेशगी दी जानी थी अथवा उपलभ्य बनाकर रखी गयी थी। दूसरी पोर क के प्रसंग में वह पूंजी रूप में प्रयुक्त वेशी मूल्य का भाग है। इस दूसरे प्रसंग से पता चलता है कि संचित पूंजी ही नहीं, मूलतः पेशगी पूंजी का एक भाग भी मात्र पूंजीकृत वेशी मूल्य हो सकता है। जैसे ही उधार का विकास दखल देता है, मूलतः पेशगी पूंजी तथा पूंजीकृत वेशी मूल्य का परस्पर संबंध और भी जटिल हो जाता है। उदाहरणतः, क इस प्रयोजन के लिए प्रारंभ से ही स्वयं अपनी पर्याप्त पूंजी न होने के कारण साहूकार ग से उत्पादक पूंजी का एक अंश उधार लेता है, जिससे वह व्यवसाय शुरू करता है अथवा उसे साल के दौरान चलाता रहता है। साहकार ग उसे एक द्रव्य राशि उधार देता है, जिसमें केवल साहूकार के पास च, छ, ज, ग्रादि पूंजीपतियों का जमा किया वेशी मूल्य ही सन्निहित है। जहां तक क का संबंध है, अभी संचित पूंजी का कोई सवाल है ही नहीं । लेकिन च, छ, ज, वगैरह के सिलसिले में क वस्तुतः अभिकर्ता के सिवा और कुछ नहीं है, जो उनके द्वारा हस्तगत किये वेशी मूल्य का पूंजीकरण करता है। हम (Buch ], Kap. XXII)* देख चुके हैं कि संचय , वेशी मूल्य का पूंजी में परिवर्तन , तत्वतः उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने पर चलनेवाली पुनरुत्पादन प्रक्रिया है, चाहे इस प्रसार की अभिव्यक्ति पुराने कारखानों में नये कारखाने जोड़ने के विस्तारी रूप में हो, चाहे काम के मौजूदा पैमाने में बढ़ोतरी के गहन रूप में। उत्पादन के पैमाने का प्रसार थोड़ा-थोड़ा करके इस तरह हो सकता है कि वेशी मूल्य का एक भाग सुधार के लिए इस्तेमाल होता रहे, जिससे या तो बस नियोजित श्रम की उत्पादक क्षमता में वृद्धि होती है या साथ ही उसका और गहन उपयोजन भी संभव हो जाता है। अथवा जहां कार्य दिवस की कोई क़ानूनी सीमा नहीं है, वहां प्रचल पूंजी का अतिरिक्त व्यय ( उत्पादन सामग्री और मजदूरी में ) स्थायी पूंजी के प्रसार के विना उत्पादन का पैमाने बढ़ाने के लिए पर्याप्त होता है, जिसका दैनिक उपयोजन काल इस प्रकार केवल बढ़ जाता है, जब कि उसकी ग्रावतं अवधि तदनुरूप घट जाती है। अथवा वाज़ार की अनुकूल परिस्थितियों में पूंजीकृत वेशी मूल्य से कच्चे माल में सट्टा किया जा सकता है और यह ऐसी कार्यवाही है, जिसके लिए मूलतः पेशगी पूंजी पर्याप्त न होती, इत्यादि । फिर भी यह स्पष्ट है कि जिन मामलों में आवर्त अवधियों की अधिक संख्या के कारण वर्ष में वेशी मूल्य का सिद्धिकरण अधिक बार होता है, उनमें ऐसी अवधियां भी होंगी, जिनमें न तो कार्य दिवस बढ़ाया जा सकता है, न अलग-अलग मुधार लाये जा सकते हैं ; दूसरी ओर सारे व्यवसाय का समानुपात प्रसार अंशतः पूरे कारखाने के , यथा भवनों के प्रसार द्वारा , अंशतः कृपि में कृष्ट क्षेत्रों के विस्तार से केवल कुछेक न्यूनाधिक संकीर्ण सीमाओं के भीतर ही संभव है और इसके अलावा इसके लिए इतने परिमाण में अतिरिक्त पूंजी अावश्यक होगी, जिसकी पूर्ति केवल वेशी मूल्य के अनेक वर्षों के संचय से ही हो सकती है। • हिंदी संस्करण : अध्याय २४।-सं०