पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२८८

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बेशी मूल्य का परिचलन २८७ . - इसलिए वास्तविक संचय अथवा उत्पादक पूंजी में वेशी मूल्य के रूपांतरण (और विस्तारित पैमाने पर तदनुरूप पुनरुत्पादन ) के साथ-साथ द्रव्य संचय भी होता है, अंत- हिंत द्रव्य पूंजी के रूप में वेशी मूल्य के एक भाग का एक साथ जमाव भी होता है, जिसका मक्रिय पूंजी की तरह कार्य करना तव तक अभीष्ट नहीं होता कि जब वाद में जाकर वह बढ़ते- बढ़ते एक निश्चित परिमाण पर पहुंच जाता है। अकेले पूंजीपति के दृष्टिकोण से मामला ऐसा ही दिखाई देता है। किंतु पूंजीवादी उत्पादन के विकास के साथ-साथ उधार पद्धति का भी विकास होता है। पूंजीपति जिस द्रव्य पूंजी का अभी खुद अपने व्यवसाय में नियोजन नहीं कर सकता, उसे दूसरे नियोजित करते हैं, जो उसके उपयोग के लिए उसे व्याज देते हैं। वह द्रव्य पूंजी के विशिष्ट अर्थ में, उत्पादक पूंजी मे भिन्न पूंजी के रूप में उसके काम आती है। किंतु वह दूसरे के हाथ में पूंजी वनकर काम ग्राती है। स्पष्ट है कि वेशी मूल्य के अधिक प्रायिकता से सिद्धिकरण और उसके उत्पादित होने के पैमाने के बढ़ने के साथ-साथ नई द्रव्य पूंजी अथवा उस द्रव्य के अनुपात में वृद्धि होती है, जो पूंजी की हैसियत से मुद्रा बाज़ार में डाला जाता है और फिर विस्तारित उत्पादन द्वारा अात्मसात कर लिया जाता है या कम से कम उसका अधिकांश आत्मसात कर लिया जाता है। अतिरिक्त अंतर्हित द्रव्य पूंजी को जिस सवसे सादे रूप में व्यक्त किया जा सकता है , वह अपसंचय है। हो सकता है कि यह अपसंचय मूल्यवान धातुएं पैदा करनेवाले देशों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में विनिमय द्वारा प्राप्त अतिरिक्त सोना या चांदी हो। इस प्रकार ही किसी देश में अपसंचित द्रव्य की निरपेक्ष वृद्धि होती है। दूसरी ओर यह भी संभव है- और अधिकांश प्रसंगों में ऐसा होता है - कि यह अपसंचय उस द्रव्य के अलावा और कुछ न हो, जिसे देश में परिचलन से निकाल लिया गया है और जिसने अलग-अलग पूंजीपतियों के हाथों में अपसंचय का रूप धारण कर लिया है। इसके अलावा यह भी संभव है कि यह अंतर्हित द्रव्य पूंजी केवल मूल्य के प्रतीक - यहां हम साख द्रव्य को अव भी नज़रंदाज़ कर रहे हैं - अथवा अन्य व्यक्तियों के प्रति क़ानूनी दस्तावेजों द्वारा प्रदत्त पूंजीपतियों के दावे ( हक़ ) मात्र हों। ऐसे सभी मामलों में इस अतिरिक्त द्रव्य पूंजी के अस्तित्व का रूप जो भी हो, जहां तक वह in spe [प्रत्याशित पूंजी है, वह भावी वार्षिक अतिरिक्त सामाजिक उत्पादन पर पूंजीपतियों के अतिरिक्त और प्रारक्षित कानूनी हक़ों के अलावा और कुछ नहीं है। "वही समाज सभ्यता की चाहे किसी भी अवस्था में हो, वास्तविक संचित संपदा की संहति , परिमाण की दृष्टि से... उसकी उत्पादन शक्तियों से तुलना करने पर अथवा उसी समाज के कुछ वर्षों के ही वास्तविक उपभोग से भी तुलना करने पर इस क़दर नगण्य होती है कि विधायकों और अर्थशास्त्रियों का मुख्य ध्यान 'उत्पादक शक्तियों' और उनके भावी स्वतंत्र विकास की ओर निदेशित किया जाना चाहिए, न कि, जैसा अव तक होता आया है, मात्र संचित संपदा पर, जिस पर निगाह पहले पड़ती है। जिसे संचित संपदा कहा जाता है, उसका अधिकांश नाम का ही होता है, जिसमें वास्तविक पदार्थ, जहाज़ , मकान, वस्त्र , भूमि पर सुधार कार्य नहीं, वरन असुरक्षा के साधनों अथवा उपायों द्वारा जनित और बनी रहनेवाली समाज की भावी वार्षिक उत्पादक शक्तियों के प्रति कोरी मांगें ही होती हैं ऐसी वस्तुओं ( भौतिक पदार्थों अथवा वास्तविक संपदा के संचय ) का उनके स्वामियों के लिए समाज की भावी उत्पादक शक्तियों द्वारा सृजित संपदा को हथियाने के मात्र साधन के रूप में उपयोग ही वह एकमात्र