पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३०२

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वेशी मूल्य का परिचलन ३०१ उत्पाद ने, अतिरिक्त सोने होता है, वह मजदूर का वार्षिक उत्पाद होता है। पूंजीपति की पेशगी यहां भी एक रूप मान की तरह प्रकट होती है, जो इसलिए अस्तित्व में आता है कि मजदूर न तो अपने उत्पादन साधनों का मालिक होता है न वह उत्पादन के दौरान दूसरे मजदूरों द्वारा उत्पादित निर्वाह साधनों पर ही अधिकार रखता है। किंतु दूसरी बात यह है कि जहां तक उस द्रव्य राशि का संबंध है, जो ५०० पाउंड के इस वार्षिक प्रतिस्थापन से स्वतंत्र , अंशतः संचय के रूप में और अंशतः प्रचल द्रव्य रूप में होती है, उसके साथ वही वात होगी, या कहें कि मूलतः वही वात हुई होगी, जो इन ५०० पाउंड के साथ प्रति वर्ष होती है। इस उपानुच्छेद के अंत में इसकी चर्चा हम फिर करेंगे। किंतु उससे पहले हम कुछ और वातें कहना चाहते हैं। आवर्त के अपने अध्ययन में हम देख चुके हैं कि अन्य परिस्थितियां समान रहें, तो अवघियों की दीर्घता में परिवर्तनों के लिए द्रव्य पूंजी की राशियों में परिवर्तन आवश्यक होता है, ताकि उत्पादन को उसी पैमाने पर जारी रखा जा सके । अतः द्रव्य परिचलन लोच को अपने को इस प्रसार और संकुचन के उस क्रमांतरण के अनुरूप बनाने के लिए काफ़ी होना चाहिए। यदि हम यह भी मान लें कि कार्य दिवस की दीर्घता, सघनता और उत्पादकता सहित अन्य परिस्थितियां समान बनी रहेंगी - किंतु मजदूरी और वेशी मूल्य में उत्पाद के मूल्य का विभाजन दूसरे तरीके से होगा, जिससे कि या तो मजदूरी बढ़ेगी और वेशी मूल्य गिरेगा या इसका उलटा होगा, तो प्रचल द्रव्य राशि इससे प्रभावित नहीं होगी। यह परिवर्तन द्रव्य मुद्रा के किसी भी प्रकार के संकुचन अथवा प्रसार के विना हो सकता है। आइये , ख़ास तौर से उस प्रसंग पर विचार करें, जिसमें मजदूरी में आम बढ़ोतरी होती है, जिससे कि हमारी कल्पनाओं के अनुसार वेशी मूल्य की दर में आम गिरावट आयेगी, लेकिन इसी के साथ-साथ और हमारी कल्पना के ही अनुसार परिचालित माल राशि के मूल्य में भी कोई परिवर्तन न होगा। इस प्रसंग में स्वभावतः उस द्रव्य पूंजी में वृद्धि होती है, जिसे परिवर्ती पूंजी के रूप में पेशगी देना होता है, अतः उस द्रव्य राशि में भी वृद्धि होती है, जो यह कार्य करती है। किंतु वेशी मूल्य में और इसलिए उसके सिद्धिकरण के लिए आवश्यक द्रव्य राशि में भी ठीक उतनी ही रक़म की कमी होती है, जितनी की परिवर्ती पूंजी की कार्यशीलता के लिए आवश्यक द्रव्य राशि में वृद्धि होती है। इससे माल मूल्य के सिद्धिकरण के लिए आवश्यक द्रव्य राशि पर वैसे ही कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जैसे स्वयं इस माल मूल्य पर नहीं पड़ता। अलग पूंजीपति के लिए माल का लागत मूल्य वढ़ जाता है, किंतु उसके उत्पादन की सामाजिक कीमत में कोई तवदीली नहीं होती। परिवर्तन होता है उस अनुपात में, जिसमें मूल्य के स्थिर अंश के अलावा मालों के उत्पादन की कीमत का मजदूरी और मुनाफे में वितरण होता है। लेकिन दलील यह दी जाती है कि परिवर्ती द्रव्य पूंजी के अधिक परिव्यय (द्रव्य के मूल्य को निस्संदेह स्थिर माना जाता है ) में मजदूरों के हाथ में ज्यादा द्रव्य राशि का होना सन्निहित होता है। इससे मजदूरों में पण्य वस्तुओं की मांग और ज्यादा हो जाती है। इससे अपनी वारी . "इस पुस्तक के पृष्ठ ३०५ देखे। -सं०