पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३१६

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भूमिका ३१५ . + समावेश करना संभव है। उनकी प्रभाविता की मात्रा ऐसे तरीकों और वैज्ञानिक विकास पर निर्भर करती है, जिनके लिए पूंजीपति को कुछ भी ख़र्च नहीं करना पड़ता। यही वात उत्पादन प्रक्रिया में श्रम शक्ति के सामाजिक संयोग और अलग-अलग श्रमिकों के अर्जित कौशल पर भी लागू होती है। कैरी हिसाब लगाते हैं कि भूस्वामी को कभी यथेष्ट प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि जमीन में अनादि काल से उसकी वर्तमान उत्पादकता संभव बनाने के लिए जितनी पूंजी या श्रम लगाया गया है, उसका उसे मुआवजा नहीं मिलता। (बेशक जमीन से जो उत्पादकता छीनी जाती है, उसका जिक्र नहीं किया जाता।) उस हिसाब से हर अलग- अलग मजदूर को उस काम के अनुसार पैसा देना होगा, जो एक वर्वर को आधुनिक मिस्तरी के रूप में विकसित करने के लिए सारी मानवजाति को करना पड़ा है। विपरीत यह समझना चाहिए कि जमीन में लगाये और भूस्वामी या पूंजीपति द्वारा धन में बदले गये निर्वेतन श्रम को जोड़ा जाये , तो इस ज़मीन में कुल जितनी भी पूंजी लगाई गई है, वह सूद दर सूद न जाने कितनी गुना अदा कर दी गई है, जिससे समाज भूसंपत्ति को कभी का और न जाने कितनी बार छुड़ा चुका है। सही है कि जहां तक श्रम की उत्पादक शक्ति की वृद्धि का मतलव अतिरिक्त पूंजी मूल्य लगाना नहीं होता, वह एक तो केवल उत्पाद की मात्रा, उसके मूल्य का परिवर्धन नहीं करती है, सिवा इसके कि वह उस सीमा तक उतने ही श्रम से अधिक स्थिर पूंजी का पुनरुत्पादन करना और इस प्रकार उसके मूल्य का परिरक्षण करना संभव कर देती है। किंतु इसके साथ ही वह पूंजी के लिए नई सामग्री और इस प्रकार पूंजी के परिवर्धित संचय का आधार निर्मित करतो है। जहां तक स्वयं सामाजिक श्रम के संगठन , और इस प्रकार श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्ति में वृद्धि के लिए बड़े पैमाने का उत्पादन और इसलिए अलग-अलग पूंजीपतियों द्वारा द्रव्य पूंजी की बड़ी-बड़ी राशियों का पेशगी दिया जाना जरूरी होता है, हम खंड १* में दिखा चुके हैं कि यह कार्यरत पूंजी मूल्यों के परिमाण में और फलतः जिस द्रव्य पूंजी के रूप में वे. पेशगी दिये जाते है, उसके परिमाण में भी निरपेक्ष वृद्धि को आवश्यक बनाये विना कुछ लोगों के हाथ में पूंजियों के केंद्रीकरण द्वारा अंशतः किया जा सकता है। कुछ लोगों के हाथ में केंद्रीकरण द्वारा अलग-अलग पूंजियों का परिमाण उनके कुल सामाजिक योग में बढ़ोतरी के विना बढ़ सकता है। यह वैयक्तिक पूंजियों का बदला हुआ वितरण मान है। अंतिम वात यह कि हम पिछले भाग में दिखा चुके हैं कि आवर्त अवधि के घटने से या तो पहले की अपेक्षा कम द्रव्य पूंजी से उतनी ही उत्पादक पूंजी को अथवा उतनी ही द्रव्य पूंजी से अधिक उत्पादक पूंजी को गतिशील किया जा सकता है। किंतु प्रत्यक्षतः इस सव का स्वयं द्रव्य पूंजी के प्रश्न से कोई संबंध नहीं है। इससे केवल यह पता चलता है कि पेशगी पूंजी- मुक्त रूप में, मूल्य रूप में एक निश्चित रकम की मूल्य राशि-में, उसके उत्पादक पूंजी में रूपांतरण के बाद ऐसी उत्पादक शक्तियां शामिल हो जाती है, जिनकी सीमाएं उसके मूल्य की सीमाओं द्वारा निर्धारित नहीं होतीं, वरन जो इसके विपरीत कुछ सीमाओं के अंदर विस्तार अथवा गहनता की भिन्न-भिन्न मात्रामों में काम कर सकती हैं। यदि उत्पादन तत्वों-श्रम शक्ति और उत्पादन साधनों की कीमतें दी हुई हों, तो पण्य . . . 'हिंदी संस्करण : खंड १, पृष्ठ ७००-७०४, ८५३-८५६।-सं०