पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४२३

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12. गुन नामानित पंजी का पुनरत्यादन तथा परिचलन . था, १० पाने पड़ते पोर मरे, उन्हें इस धन का उत्साद , १०० पाउंड की उपभोग वस्तुएं . मत देना पड़ना । मनिए इन द्रव्य का पञ्चप्रवाह बहुत से बहुत इसकी व्याव्या कर सकता विमलेन-देन में पूंजीति प्रांर श्यादा गरीब क्यों नहीं हुए, लेकिन इसकी हरगिज़ व्याख्या नहीं कर पाता कि वे उनले प्यादा धनी क्यों हो जाते हैं। बैगा यह अलग सवाल है कि पूंजीपतियों के हाथ में ये १०० पाउंड पाये कैसे प्रार मजदारों को मृद अपने लिए मान पैदा करने के बदले क्यों अपनी श्रम शक्ति का इन १०० पाउंट में विनिमय करना पड़ता है। किंतु देस्तु की सी प्रतिमा के विचारक के लिए यह सब स्वतःनिद है। स्वयं देनु नी इन समाधान से पूर्णतः संतुष्ट नहीं होते। आखिर उन्होंने हमसे यह तो कहा नहीं था कि कोई आदमी कोई रकम , १०० पाउंड , खर्च करके और इसके बाद १०० पाउंड सम फिर हामिल करके , अतः १०० पाउंट के द्रव्य रूप में पश्चप्रवाह से ज्यादा धनी बन जाता है, जिमने केवल इसी बात का पता चलता है कि द्रव्य रूप में १०० पाउंड खो क्यों नहीं जाते। वह हमसे कहते हैं कि पूंजीपति " जो भी चीज वे पैदा करते हैं, उसे पैदा करने की लागत से ज्यादा पर बेचकर" धनी बनते हैं। फलतः पूंजीपति मजदूरों ने भी अपने लेन-देनों में उन्हें बहुत महंगा वेचकर अधिक धनी बनेंगे। बहुत ठीक! “वे मजदूरी देते हैं .. और यह सब इन सभी लोगों के व्यय के जरिये उनके पास वापस या जाता है, जो मजदूरी में उन्होंने" [पूंजीपतियों ने] "जो कुछ लगाया उससे ज्यादा उन्हें" [उत्पाद के लिए] "देते हैं।" (वही, पृष्ठ २४० । ) दूसरे शब्दों में पूंजीपति मजदूरों को मजदूरी में १०० पाउंड देते हैं और फिर इन मजदूरों को उन्हीं का उत्पाद १२० पाउंड पर वेत्र देते हैं, जिससे कि वे अपने १०० पाउंड वापस ही नहीं पा जाते , बल्कि २० पाउंड का मुनाफ़ा भी पा जाते हैं? यह असंभव है। मजदूर वही धन दे सकते हैं, जो उन्हें मजदूरी के रूप में मिलता है। यदि उन्हें पूंजीपतियों से मजदूरी में १०० पाउंड मिलते हैं, तो वे १०० पाउंड की ही खरीदारी कर सकते हैं, १२० पाउंड की नहीं। इसलिए इसने काम नहीं चलेगा। लेकिन एक रास्ता अभी और है। मजदूर पूंजीपतियों से १०० पाउंड का माल खरीदते हैं, लेकिन असल में पाते सिर्फ ८० पाउंड का माल ही हैं। इस तरह २० पाउंड उनने कतई ठग लिये जाते हैं। और पूंजीपति को २० पाउंड का निरपेन लाभ होता है, क्योंकि उसने श्रम शक्ति के लिए उसके मूल्य से असल में २० % कम दिये अथवा चक्करदार रास्ते से वास्तविक मजदूरी में २० फ़ीसदी कटौती कर दी। पूंजीपति वर्ग अगर प्रारंभ में ही मजदूरों को मजदूरी में केवल ८० पाउंड दे और बाद में द्रव्य रूप के इन ८० पाउंड के बदले उन्हें वस्तुतः ८० पाउंड का ही माल दे, तो भी बढ़ इमी लक्ष्य की सिद्धि करेगा। पूंजीपति वर्ग पर समूचे तार पर विचार करें, तो यही सामान्य तरीका जान पड़ता है, क्योंकि स्वयं श्रीमान देस्तु के अनुसार मेहनतकश वर्ग को " पर्याप्त मजदूरी" मिलनी चाहिए (पृष्ठ २१६), क्योंकि उन मजदूरी कम से कम इतनी तो होनी ही चाहिए कि वे जीन और काम करने लायक बने रहें, “निर्वाह मान को तो जुटा सकें" (पृष्ठ १८०)। यदि मजदूरों को ऐसी पर्याप्त मजदूरी नहीं मिलती है, तो उसका अर्थ, उन्हीं देस्तु के अनुसार होगा "उद्योग की मांत" (पृष्ठ २०८), जो इस कारण ऐना तरीका नहीं गता कि जिनसे पूंजीपति ज्यादा धनी बन सकें। किंतु मजदूर वर्ग को पूंजीपति जो मजदूरी देते हैं, उसका पैमाना चाहे जो हो, मजदूरी का एक निश्चित मूल्य होता है, यथा ८० पाउंड । 1 .