पृष्ठ:कालिदास.djvu/१८

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कालिदान । पपिता का शवगतदीमाश्य नही, किन्तु पवगत-माहश्य, मर्यगत-गारश्य, प्रलद्वारगत-माहश्य भी मिलता है। इससे पाह पर गनित होता है कि अश्ययोर के समय में कालि. दास की कयिता गुप प्रसिद्ध हो गई थी और अश्यधीर ने उसकी गूप मैर की थी। सैर ही नहीं, उसकी जिह्वा पर पार चढ़ी हुई थी। अन्यया इतनी सटशना कमी न पाई जाती। प्रतिमा के यल में जो यात एक कवि कह देता है पदी दूसरा भी कह सकता है। पर यह नहीं कि एक कहे "याता ययुः स्पर्शसुखाः' तो दूसरा भी कहे “वाता ययुः स्पर्शमुखाः । एक कहे “इक्ष्वाकुवंशममयः तो दूसरा भी कहे "दयायुपंशप्रमयः । अच्छा, यदि दो एक दफे ऐसा हो भी तो यह कदापि सम्मव नहीं कि यार यार हो। बिना एक-दूसरे की कविता को देखें इस तरह उक्ति, अर्थ, पद, शब्द वादि के सादृश्य यार यार मुंह से नहीं निकल सकते। तो फिर अश्वयोग से फालिदास प्राचीन हुए। श्रश्वधोप को श्राप ईसा की पहली शताब्दी में हुश्रा बतलाते हैं। कालिदास को कम से कम सौ वर्ष तो पहले हुधा पतलाइए। पयोंकि मालवा से काश्मीर तक उसकी कविता के प्रचार में इतना समय तो श्रवश्य ही लगा होगा। जिस परसभा की कविता मन्दसोर में मिली है वह वहीं कहीं आसपास का रहनेवाला होगा। कालिदास की स्थिति भी मालवा ही में प्रसिद्ध है। अतएव जय एक मालवावासी कवि के मन