[ कालिदास के मेघदूत का रहस्य ।
रस में सर्वतोभार से ड्य रही है, जिसके प्रेम-परिपूर्ण हत्य में और कोई सांसारिक भावनायें या घासनायें श्राने का साहस तक नहीं कर सकती, वह यदि अचेतन मेघ को दूत बनाये और उसके द्वारा अपनी प्रेयसी के पास अपना 'सन्देश भेजे तो आश्चर्य ही क्या ? जो मत्त है और जो संसार की प्रत्येक घस्तु में अपने प्रेम-पात्र को देख रहा है उसे यदि जड़-चेतन का भेद मालूम रहे तो फिर उसके प्रेम की उच्चता कैसे स्थिर रह सकती है ? यह प्रेम ही गया जो इस तरह के भेद-भाव को दूर न कर दे। कीट-योनि में उत्पन्न पतिको के लिए दीप शिखा की ज्याला अपने प्राकृतिक दाहक गुण से रहित मालूम होती है। महा-प्रेमी यक्ष को यदि मेघ की अचेतनता का खयाल न रहे तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविकता नहीं । फिर, क्या यक्ष यह न जानता था कि मेय पया चीज़ है? यह मेघदूत के प्रारम्भ ही 'में फहना है-
“घाम धूम नीर सो समीर मिले पाई देह
ऐसो घन कैसे दूत-काज भुगतायेगो।
मेह को सँदेसो हाथ चातुर पढ़यो जोग
पादर कहो जो ताहि कैसेके सुनायेगी।
पाढ़ी उत्साएटा अक्ष-युद्धि विसरानी सय
पाही सो निहोरपो जानि काज करि मावेगी।