कानिदाम । कहलाया है। उमझा मानय है-यह दो तीन कदम चली और अकस्मात् बड़ी हो गई। यो? इसलिर कि कुश की नोक पैर में चुभ गई थी । पर क्या यह यात सच थी? अजी, नहीं। यह मेरे देखने का एक बहानामात्र था। इतना ही नहीं, एक और भी यहाना मुझे दुबारा देखने के लिए उसने किया । पास के पेड़ की शाखा से वह अपना वल्कल छुड़ाने लगी। शाखा में न तो वल्कल लिपटा था, न उलझा था, न कुछ । परन्तु वह उसे मेरी तरफ मुँह फेरकर इस तरह छुड़ाने लगी जैसे वह येतरह उलझ गया हो। यह क्यों ? यह भी इसीलिए कि मुझे एक बार फिर देख ले। इस पद्य में-इस घटना में इस दृश्य में एक अपूर्व भाव है । उसे राजा रविवर्मा ने एक चित्र में दिखाया है। यह चित्र सर्य-सुनम है। सब कहीं मिल सकता है। परन्तु चित्रकला-विशारदों को यह चित्र पसन्द नहीं। इसी से, कुछ समय हुश्रा, यालौर को एक सभा ने विज्ञापन दिया था कि यदि कोई चित्रकार इस पद्य के आधार पर एक सर्वोत्तम चित्र यनावेगा तो उसे सोने का एक पदक दिया जायगा। कई चित्र बनाये गये। उनमें से यम्मा के पास घाटकूपर में जो रविउदय नामक प्रेस है उसके चित्रकार थीयुत महादेव पारमाराम जोशी का चित्र सय से अच्छा समझा गया। उन्हीं को पदक मिला । भल RELI
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