पृष्ठ:कालिदास.djvu/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[ कालिदास की दिखाई हुई प्राचीन भारत की एक झलक ।

किञ्चनता का जरा भी खयाल न करके प्रसन्नतापूर्वक कहता है.--"वहुत अच्छा, प्राचार्य ! चौदह करोड़ ही दूंगा!" ऐसी अवस्था में कौन अधिक प्रशंसनीय है-गुरु या शिष्य ? इसका उत्तर देना कठिन है। गुरु भक्ति-भाव ही से खुश है। चेले के पास चौदह कौड़ियाँ भी नहीं; पर गुरु की प्राशा के अनुसार चौदह करोड़ देने की यह प्रतिज्ञा करता है ! इस एश्य का मुकायला वर्तमान समय के विद्यालय-सम्बन्धी दृश्य से कीजिए । श्राकाश-पाताल का अन्तर है; तिल-ताड़ का अन्तर है, कौड़ी-मुहर का अन्तर है। है या नहीं? इसी- से कहते हैं कि भारत ! तुम कुछ के कुछ हो गये हो ।

अच्छा, इस दृश्य को श्राप देख चुके। अब इसके चार का एक और दृश्य देखिए । उसमें श्रापको पूर्वोक्त परतन्तु के श्राश्रम की झलक के सिवा और भी कुछ देखने को मिलेगा। साथ ही आपको यह भी देखने को मिलेगा कि भारत के प्राचीन चयर्ती राजा ऐसे आश्रमों की कहाँ तक खवर रखते थे। इस दृश्य के दिखाने का पुण्य महाकवि कालिदास को है । अपने रघुवंश में ये जो कुछ लिख गये हैं उसीकी बदौलत हमें यह दृश्य देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

चौरह करोड़ दे डालना, ऐसे पैसे प्रादमी का काम

नहीं। राजामों के लिए भी इतना पड़ा दान देना कठिन

२२१