पृष्ठ:कालिदास.djvu/२५

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[कालिदास का प्राविभाय-काल । यह श्राख्यायिका प्रसिद्ध है कि कालिदास विक्रमा- दित्य की सभा के नवरत्नों में थे। नौ पण्डित उनकी सभा के रत-रूप थे; उन्हीं में कालिदास की भी गिनती थी। खोज से यह यात भ्रम-मूलक सिद्ध हुई है। “धन्यन्तरि- तपणकामरसिंहशङ्क."-श्रादि पद्य में जिन नौ विद्वानों के नाम आये हैं ये कय समकालीन न थे। वराहमिहिर भी इन्हीं नौ विद्वानों में थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में लिखा है कि शक ४२७, अर्थात् ५०५ ईसवी, में इसे मैंने समाप्त किया। अतएय जो लोग ईसा के ५७ घर्ष पूर्व उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य की सभा में इन नौ विद्वानों का होना मानते हैं वे भूलते हैं। कालिदास विक्रमादित्य के समय में ज़रूर हुए, पर ईसा के ५७ वर्ष पहले नहीं। ईसा के चार-पाँच सौ घर्ष याद किसी और ही विक्रमादित्य के समय में ये हुए। इस रामा की भी राजधान उज्जैन थी। यह नया मत है। इसके पोषक कई देशो और विदेशी विद्वान् हैं। इन विद्वानों में कई का कथन तो यह है कि कालिदास किसी राजा या महाराजा के श्राश्रित ही न थे। घे गुप्तवंशी किसी विफमा- दित्य के शासनकाल में ये अवश्य; पर उसका प्राश्रय उन्हें न था। हाँ, यह हो सकता है कि ये उज्जैन में बहुत दिनों तक रहे हो और उज्जयिनी-नरेश से सहायता पाई हो। परन्तु अजियिनी के अधीश्वर के पे अधीन न थे। उनका नाटक