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पृष्ठ:कालिदास.djvu/६२

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फालिदास।] की है तथापि कुछ लेखकों ने यशोधा को विक्रमादित्य समझ लिया और यह कल्पना कर ली कि मालव-संवत् को उसीने, अपनी जीत के उपलक्ष्य में, अपने नाम के अनुसार परिवर्तित करके, उसका नाम विमाम-संवत् कर दिया । यही नहीं, उन लोगों ने यह भी कल्पना कर ली कि संस्कृत- साहित्य का पुनरुज्जीवन भी यशोधा ही के समय में हुआ और फालिदास भी उसीकी सभा के सभासद थे। इस कल्पना की उद्भावना का पफ कारण यह भी हुआ कि- "धन्यन्तरिक्षपएको ऽमरसिंह शंकु -त्यादि नपरम- सम्पन्धी श्लोक में कालिदास के साथ यराहमिहिर का भी माम है। और, पराहमिहिर का रामर सन् गियी के छठे शतक का उसराई माना जाता है। इसीसे परीक्षा-प्रवृत्त पण्डितों ने यह मिशाल निकाला कि जय पराहमिहिर पधम्मों के समय में ये तय कालिदारा भी ज़कर हो रहे दोंगे। नोकि ये दोनों किम की मपरत-मालिका के अन्तर्गत थे। परन्तु गयरत-सम्बन्धी इस शोक में उतना दो सत्यांश जितना कि भोज-अन्धक उन सेना में निरी मयमति, भागरि, माय चौर कालियाग पर समकालीन माने गये हैं। अतरय यह पाना भी प्रा । अम्यामो फिर काशिराम कर ! सुनिए । में समंद नही शिकानिहाम घिमी विक्रम-