पृष्ठ:कालिदास.djvu/७३

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[कालिदास का प्राविभ-माता। रघु को चन्द्रगुप्त का प्रतिनिधि माने बिना प्रश्न, और किमी तरह, हल नही हो सकता। ' जान पड़ता है, कालिदास की मृत्यु, पूर्द होने पर, हुई। अपने प्राश्रयदाता चन्द्रगुप्त के मरने के याद भी घे कुछ समय तक शयद जोषित थे। अपने अन्तिम यय में ही उन्होंने शकुन्तला और रघुवंश का उत्तराई लिया होगा। कालिदास को अपने नूतन यय में उन्नयिनी राजधानी से पड़ा प्रेम था। पर युदापे में राजनगर और राजप्रासाद से उन्हें घृणा सी हो गई थी। शकुन्तला में वे दुधान्त के राजभवन के विषय में, करव के शिय के मुँह से, कहलाते है- जनाकीणं मन्ये दुतवपरीतं गृहमिय । अनुमान से मालूम होता है कि उनका जितना बादर-सत्कार चन्द्रगुप्त के समय में पा उतना उसके उत्तर- धिकारी कुमारगुप्त के समय में नहीं रहा। इसीसे खिन्न होकर उन्होंने शकुन्तला और रघुवंश के अन्तिम कई स! में अपने मन के विका, विवश होकर, प्रकट किये हैं। मेघदूत में उजयिनी की इतनी प्रशंसा करके, उत्तर यय में ये नगरवास की अपेक्षा पन पास के ही विशेष अनुरागी से हो गये जान पड़ते हैं। चन्द्रगुप्त के याद मगध की ऊर्जितावस्था क्षीण होती गई। इसी को लक्ष्य करके कालिदास ने रघवंश के अटारहवें सा में कई जगह रघुवंशियों के राज्य की हीना-