पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१२५

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कार-निर्णय रोद्र-रस बरनन 'कवित्त' जथा- देखत मदंध,' दसकंध अंधधुध - दल, ____बंधु सों बलकि बोल्यौ राजा रॉम बरबंड । लच्छन बिचच्छंन सँम्हारे रहौ निज-पच्छ, देखि हों अकेलें हों-हीं अरि-अँनी परचंड ।। आज अधबाऊँ इन सन के स्रोनितन,' 'दास' भँनि बाढ़ी मेरे बानन तृपा अखंड । जॉन पँन सकस, तरक्क उठ्यौ तकस, करक उठ्यौ कोदंड, फरक्क उठे भुज-दंड ॥" वि० - "रौद्र-रस,-"मान भंग, अपकार, शत्रु की चेष्टा और गुरुजन-निंदा से उत्पन्न कहा गया है। अतएव जिस रस के अास्वादन से क्रोध प्रकट हो उसे 'रौद्र-रस' कहते हैं। क्रोध, इसका स्थायीभाव और बालंबन - "शत्रु और उसके पक्ष वाले अथवा अवस्कंदक, अपराधी तथा दुर्जन माने जाते हैं। उद्दीपन- --"शत्रु-द्वारा किये गये अनिष्ट कार्य, आक्षेप, कटोर वाक्यों का प्रयोग, शत्रु- सैन्य-वृद्धि", अनुभाव-"नेत्रों की रक्तता, भृकुटि-भंग, दांतों का भींचना, होंठों का चवाना, कठोर-भा पण, स्वकार्यों की प्रशंसा, शस्त्रों का उठाना, क्रूरता से देखना, आक्षेप करना, आवेग, गर्जन-तर्जन, ताड़न, रोमांच, कंप और प्रत्वे- दादि...", गुण- प्रोज', रीति-"गौड़ी", वृत्ति --"पौरुपा", सहचर-रस -वीर, बीभत्स, वात्सल्य, शांत, अद्भुत और करुणा-रस," विरोधी-"शृगार, हास्य तथा भयानक", वर्ण-'लाल', और देवता--'रुद्र' कहा गया है । वीर और रौद्र-रस के बालंबन-उद्दीपन प्रायः समान-ही देखे जाते हैं, पर 'स्थायी-भाव' में भेद है । नेत्र-मुग्व का अारक्त होना, कठोर वाक्यों का कहना, शस्त्र-प्रहार करना-अादि अनुभाव रौद्र-रम में ही होते हैं, वीर में नहीं।" भयानकरस बरनन 'कबित्त' जथा- आयौ कॉन्ह सुनि भूल्यौ सकल साँयनपँन स्यार-पॅन कंस को न कहत सिरात है। पा०-१. (३०) महांध...। २. (३०) सोनितन... ३. (भा० जी०) (३०) सकस...! ४. (भा० जी०) (३०) उठ्यो...। ५. प्रतापगढ़ और संमेलन प्रयाग की हस्तलिखित, महावीरप्रसाद मालवीय संपादित और वेंकटेश्वर प्रेस वाली मुद्रित प्रतियों में यह छद 'वीर-रस- के उदाहरण के अंतर्गत लिखा है । ६. (प्र०) (भा० जी०) (३०) हुस्यारन...।