पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१३३

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१८ काव्य-निर्णय वि०--"अर्थ स्पष्ट है, फिर भी 'श्याम' के हृदय में हर्ष और विषाद दोनों भावों का सुदर वर्णन हुआ है। अथ भाव-सबल बरनन 'दोहा' जथा- बौहौत भाव मिलि के जहाँ, प्रघट करें इक रंग । 'सबल भाव' तासों कहैं, जिनकी बुद्धि उतंग॥ वि०-'जब एक के पीछे दूसरे और दूसरे के पीछे तीसरे भावों का क्रमानुसार, एक ही स्थान पर संमिलन हो तो वहाँ 'भाव-शबलता' कही जाती है। यथा- "भावस्य शांतिरुदयः शंधिः शबलता तथा । काम्यस्य कांचनस्येव कुंकुम कांतिसंपदे ॥" . --चं० लो० (जयदेव )पृ०७४, अर्थात् भावोदय, भाव-संधि और भाव-शबलतादि भी काव्य की शोभा को वैसा ही बढ़ाते हैं, जैसे सोने में केशर की सुगंध..।। अस्य-उदाहरन 'दोहा' जथा- हरि-संगत सुख-मूल सखि, पै परपंची गाँउ । तू कहि, तौ तजि संक उत, दृग-बचाइ द्रुत जाँउ ॥ अस्य तिलक- इहाँ, उतकंठा, संका, दीनता, धृति और भावेग 'अविहित्य-भाव' को सबल कारक है, जाते 'भावसबलता' मई। वि०-'अवहित्य-प्राकृति गोपन वहाँ कहते हैं, जहां चतुरता से दसा दुगयी जाय--छिपायी जाय, जैसा कि दासजी की इस कृति में वर्णित है । रस- लीन कहते हैं- "सम गोपन व्यौहार को सो अवहित्या' भाव । है विभाव हिय कुटलई, वहि लावन मँनुमाव ॥" और उदाहरण- "सौत-सिंगार-विहार तिय, घूघट-पट मुख स्याह । खाँसी को मिस ऑन के, हाँसी रही दुराइ॥" --२०म०१०१०१,