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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१५३

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११८ काव्य-निर्णय विवच्छितवाच्य धुनि भेद जथा-- कहें। बिबच्छितबाच्य धुनि, चाँह करें कहि जाइ' । ' 'असंलच्छम' 'लच्छम' होत भेद द्वै ताइ । वि०. “जहाँ वाच्यार्थ ज्यों का त्यों रहते हुए भी दूसरा व्यंग्यार्थ निकले वहाँ --विवक्षितवाच्य ध्वनि होती है और इसके--"असंलक्ष्यक्रम' और संलक्ष्य- क्रमव्यंग्य दो भेद कहे जाते हैं।" अथ प्रथम असंलक्ष्यक्रम ब्यंग जथा- असलच्छम ब्यंग जह, रस-पूरनता चारु । लखि न पर कँम जहँ द्रबै; सज्जन-चित्त-उदारु ॥ वि०-"जहाँ वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ का पौर्वापर्य क्रम भली-भाँति प्रतीत न हो, वहाँ- "असंलक्ष्यक्रमव्यंग" कहलाता है और यह पूर्व कथित- "रसभाव तथा भासतत्प्रशांत्यादिरक्रमः । ध्वनेरात्मांगिभावेन भासमाने व्यवस्थित ॥" -० लो० पृ० ३, ३ अर्थात् - रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशांति, भावोदय, भावसंधि और भावशबलता-श्रादि पाठ प्रकार का होता है।" रस-भाबन के भेद की गँनना गॅनी न जाइ । एक नौम सब को कहयौ, रस ब्यंग ठहराइ । रस ब्यंग उदाहरन 'सवैया' जथा- मिस सोइबौ लाल को माँन सही, सु हरें उठि मोंन महा धरि के। पट-टारि लजीली निहारि रही, मुख की रुचि को रुचिकों' करि के। पा०-१ (प्र०) प्र० मु०) बहै...। (व.) कहा बिवांछित बाच्य...। २. (प्र०) (०) कवि.... (सं० प्र०) वो अबिबांछित बाच्य धुनि...। ३. (भा० जी०) (०)(प्र० मु०) जाहि ४. (भा० जी०) (०) (प्र० मु०) ताहि । ५. (प्र० मु०) को । ६. (स० प्र०) रस. व्यगी...। ७. (३०) हरि-ही उठि... | (सं० प्र०) (२० सा० ), सु हरे-ही उठी मोंन...। (प्र०-३), हरुऐ उठी । (प्र.) (३०) (भा० जी० ) रसीली...। ६. (प्र०-३) सों...।