पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२० काव्य-निर्णय सब्द-सक्ति धुनि लच्छिन 'दोहा' जथा- अनेकार्थ मैं सबद सों, सब्द-सक्ति पैहचाँनि । अभिधामूलक ब्यंग जिहिं,' पैहले कयौ बानि ॥ ___याके भेद 'दोहा' जथा- कहूँ बस्तुते बस्तु की, ब्यंग होत कविराज । कहूँ अलंकृत ब्यंग है,२ सब्द-सक्ति द्वै साज ।। वस्तु ते वस्तु ब्यंग लच्छिन 'दोहा' जथा- सूधी कहनाबत जहाँ अलंकार ठहरै न । ता-हि बस्तु संजोग है, व्यंग होइ कै बेंन ॥ . वि०-"वस्तु उस अर्थ को कहते हैं जिसमें अलंकार न हो, अर्थात् जहाँ ऐसा व्यंग्यार्थ हो कि जिसमें कोई अलंकार न ठहरे ।" अस्य उदाहरन 'दोहा' जथा- लाल-चुरी तेरें अली', लागत निपट मलीन । हरियारी करि देंउगी, हों तो हुकम-अधीन ॥. अस्य तिलक इहाँ एक अर्थ साधारन है, दूसरे अर्थ में 'दूतत्त्व' है, सो बस्तु ते बस्तु व्यंग है। वस्तु ते अलंकार ब्यंग उदाहरन 'दोहा' जथा- फैलि चलो अगनित घटा, सुँनत सिंघ-घेहराँन । पर मौर चहुँ ओर ते, होत तरुन की हाँन ।। अस्य तिलक इहाँ घटा जो है गज-सँमूह की सो सिंघ की गरज ते भाग चली, ताते बृच्छन की हानि हैनौ उचित ही है सो 'समालंकार' व्यंग है। पा०-१. ( भा० जी) (३०) जहँ... | २. (३०) ते ..| ३, (प्र.)(सं० प्र.)(सं० प्र०) (३०) ताहि बस्तु संशा कहैं। ४. (भा० जी०) (प्र.) तेरें लली...। (३०) तेरी अली, । ५. (भा० जी० (३०) चल्यो"। (०) परी..।

  • व्यं० म० (ला० भ०) पृ० ३२ ।