१४० काव्य-निर्णय (अधर के कारण लाल) मोती देख कर हरि (नायक) सखात्रों (इष्ट-मित्रों का) साथ छोड़ कर अति आर्तभाव से-हे हरि, हे हरि कहते हुए डोल रहे हैं, अतएव मान छोड़ उनसे मिल और उनकी इस व्याधि को दूर कर ।" किंतु इन दोनों अर्थों में ध्वनि वही रहेगी जो 'लालाजी' मान्य है, अर्थात् "कवि-प्रौढोक्ति अलं- कार से वस्तु व्यंग्य" ही माना जायगा, दामजी अथवा विविध-प्रति शाक्षी है- शीर्षक नहीं।" कुछ ऐमी-ही विशेषता-सयुक्त सूक्तियाँ रमलीन' जी ने अपने 'रस-प्रबोध' में कहीं है, यथा- "जिहिं मानक सौ मन दियो, प्राइ तिहारे हाथ । तिहिं पं अपनों रूप-हूँ चलि दरमैरे नाथ ॥" सिर कलंक कत लेति मुख, ससि निकलंकी पाइ । वह चकोर लौं दिन भरत, बिहत अँगारन-खाइ ॥ कहा कहो वाकी दसा, जब खग बोलत रात। 'पीय' सँनति ही जियति है, 'कहाँ' सुनति मर जात॥" ( पुनः) कवि-प्रौढोक्ति अलंकार ते अलंकार ब्यंग जथा- बाल, बिलोचन बाल तें, रह्यौ' चंद-मुख-संग । बिख बगारिबौ को सिख्यौ, कहों कहाँ ते ढंग ॥. अस्य तिलक इहाँ ( कबि-प्रौढोक्ति रूप ) सलि-मुख रूपक ता ते बिष-बगारिबौ विषमाँ- लंकार व्यंग है। वि० -'जिनका संबध अनुचित हो, उन वस्तुओं के एक साथ वर्णन करने तथा साथ-ही सुदर कर्मों के करने पर भो-विपरीति फल प्राप्ति का वर्णन करने पर भी यही अलंकार कहा जाता है।" अथ प्रसंग धुनि जथा- एक-हि सब्द-प्रकास में उभै सक्ति न लखाइ । यों सुनि होत 'प्रसंग-धु नि,' कथा-प्रसंग-हि पाइ॥ पा०-१.( व्य० मं० ) रहे । २.(सं० प्र०) (३०) अप्रबंध धुनि"। ३. (प्र०) (5० मु० ) (३०) अस सुनि होत प्रबंर धुनि ।
- व्यं० मं० ( ला० भ० ) ० ५४ । | व्य० मं० ( ला० भ० ) पृ० ५५ ।