पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६८. काव्य-निर्णय प्रति उपमा।' यहाँ उपमा शब्द का प्रयोग भी 'समान धर्म ( उपमेय-उपमान के दो वाक्यों में एक ही समान धर्म का पृथक्-पृथक् शन्दो -द्वारा कहा जाना ) के लिये है, यथा- ____ "प्रति वस्तु-प्रतिवाक्यार्थमुपमा समानधर्मोऽस्याम् । अथवा- "प्रतिवस्तु प्रति प्रति वाक्यार्थ उपमा सादृश्यं यस्यां सा-"प्रतिवस्तूपमा"।" ___-कुवलयानंद (संस्कृत) प्रतिवस्तूपमा में तीन बात श्रावश्यक कही गयी है -"प्रथम दो वाक्यों का उपमेय-उपमान-रूप में होना, दूसरे-"दोनों में एक ही धर्म का होना" और तीसरे-"उस धर्म का भिन्न, पर एकार्थी-शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना" इत्यादि। यह अंतिम (तीसरा) नियम पुनरुक्ति-दोष दूर करने को अावश्यक कहा गया है । एक बात और, वह यह कि “इस लंकार में कहीं-कहीं वैधम्य वा विरोध अथवा निषेध-वाचक शब्दों द्वारा धर्मों की एकता प्रकट की जाती है, पर वे शब्द वास्तव में उसी साधर्म्य के पोषक ही होते हैं । ___ प्रतिवस्तूपमा की-उपमा, दृष्टांत, दीपक, विशेषकर 'अर्थावृत्ति दीपक और तुल्य- योगिता से पृथक्ता दिखलाते हुए प्राचार्य वर्गों ने कहा है कि "उपमा में उपमा- वाचक शब्दों का प्रयोग होता है, यहाँ नहीं। दृष्टांत में यद्यपि उपमा-वाचक शब्द नहीं होते, पर उपमेय, उपमान और समान धर्म आदि तीनों का विब-प्रति- विंब भाव अवश्य होता है, जब कि यहाँ एक ही समान धर्म शब्द-भेद से कहा जाता है । इसी प्रकार दीपक और तुल्ययोगिता में समान धर्म का एक बार कथन होता है और यहाँ एक हो धर्म का पृथक्-पृथक् शब्द-भेद से दो बार कथन किया जाता है इत्यादि...।। प्रतिवस्तूपमा वैधयं भी होती है और माला रूप में मी। जैसा कि विविध उदाहरणों द्वारा दास जी ने वर्णन किया है।" प्रतिबस्तूपमा-उदाहरन जथा- मुक नर-हु' घेने जाँ में विराजत, राते-सिता-सित भ्राजत ऍनी । मध्य सुदेस ते हैं बिरम्हांड-लों, लोग कहैं सुर-लोक-निसेंनी ॥ पावन पानिप सों परिपूरन, देखत दाहिं दुखै, सुख-देनीं। 'दास' भरै हरि के मन कॉम कों', बोस बिस ये बनी सी बेंनी ॥ पा०-१ (सं० प्र०) (वे.) (प्र० मु०) नरौ घने.... २ (३०) रात...! ३ (भा० जी०) सों...।