कान्य-निर्णय २०३ वस्तुत्प्रेच्छा मेद बरनन जथा-- बस्तुस्प्रच्छा दोह' विधि, उक्ति-अनुक्ति विषेन । उकति-विर्षे जग न-उकति, होत कविन के बेन । उक्तविषया बातुत्प्रच्छा उदाहरन जथा- रेंन ति-मैहले धुन चढो, मुख-छबि लखि नँद-नंद । घरी तीन उदयादि ते, 'जनु' चढ़ि आयौ चंद ।। अस्य तिलक "चंद्रमा को चढ़ियो अचरज नाही, साते ये उक्ति ( उक्त ) विषया उत्प्रेच्छा कहिऐ।" वि०-"वस्तुत्प्रेक्षा के उक्त उदाहरण रूप दासजी को इस सुमधुर सूक्ति के साथ "विहारीलाल जी" का यह दोहा भी बड़ा सुदर है, जैसे- "तू रहि सखि, हों ही लखों, चदि न अटा बलि बाल । क्योंकि- "बिन-हीं उगे ससि समझि, दै अरघ अकाल ॥" -बिहारी सतसई अथवा- "माज की रात तू जो मह के मुफाबिल हो जाय । चाँदनो हो मैली, धुलवाने के काबिल हो जाय ॥" -कोई शायर, पुनः उदाहरन जथा- लसें बाल-बच्छोज यों, हरित-कंचुकी-संग । दल-तल-दबे पुरेंन के, मनों रथांग बिहंग ॥ अस्य तिलक पुरन (कमल ) के दल-तरें (नीचे) रथांग-चकवा को पबिबी भरच नाही ताते यहाँ हूँ उक्त विषया-उत्प्रेच्छा है। पा०-१. (सं० प्र०) होइ । २. (का०) (३०) (प्र.) कवि-हि की । ३. (का० ) (३०) (प्र. ) (सं० प्र०) तिय" । ४.( का० ) (३०) (प्र.) (सं० प्र०) उदयाद्रि" | ५. ( रा० श० गौं०) लसी। ६. (का०) मानों स्थग...। (३०) मनों रथंग...।
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