पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२४१

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२०६ काव्य-निर्णय न किया गया हो वहाँ 'अनुक्त विषया' उत्प्रेक्षा कही जायगी, जैसा कि दासजी ने इस छंद में वर्णन किया है।" ___"अलंकार-मंजरी में कन्हैयालाल पोद्दार ने दास जी के इस उदाहरण के प्रति "अनुक्त विषया उत्प्रेक्षा" अलंकार इस छंद में न मान कर “उक्त विषया- उत्प्रेक्षा" का उल्लेख करते हुए लिखा है कि "छंद के चौथे चरण में चंद्र-मध्य खंजन, सर्प, शुक और तारागणों की उत्प्रेक्षा की गयी है और उसके विषय (उपमेय) जो नायिका के नेत्र, अलकावलि, नासिका और नथ के मोती श्रादि का कथन छंद के पहिले चरणों में किया गया है, इसलिए यह उदाहरण उक्त अलंकार का नहीं होता, जैसा दासजी ने अपने इस छंद की व्याख्या में कहा है। क्योंकि 'असंभव वस्तु की कल्पना करना ही 'अनुक्क-विषयोत्प्रेक्षा' का विषय नहीं होता। पुनः उदाहरन सवैया जथा-- "दास' मनोहर ऑनन बाल को, दीपत जासु' दिपें सब दीपै । स्रोन सुहाए बिराज रहे, मुकताहल-संजुत तासुर सँमीपै ॥ सारी महीन मों५ लींन बिलोकि, बखाँनत हैं कवि जे अबनी पै । सोदर' जाँनि ससी-हिं मिल्यौ सुत संग लिऐं मनों सिंध में सी० ॥* अस्य तिलक "इहाँ सीप को ससि (चंद्रमा) सों मिलबौ अचरज (पूर्ण) है-कवि-कथन मात्र है, ताते "अनुक्त विषया उत्प्रेच्छा" है। सोदर (सहोदर) जाँनिबौ हेतु समरथन है। वि.-'दासजी तथा नख-सिख संग्रहकर्ता ने इस छंद को 'शृगार-निर्णय एवं 'नख-सिख हजारा' में नायिका के 'श्रवण वर्णन' में संकलित किया है। श्रवण-वर्णन रूप 'देव कवि' का यह निम्न-लिखित छंद भी विशेष दृष्टव्य है, यथा- पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) जाकी...। २. (रा० पु० प्र०) (रा० पु. का०) दीप-हि । ३. (का०) (३०) (प्र०) (० नि०) (सु. ति०) (सु० स०) (न० सि० ह०) ताहि...। ४. (रा० पु० प्र०)(रा० पु० का०) समीपहि। ५. (का०) (३०) (प्र०) सो... ६. (का०) को। (३०) के...(०नि०)। (सु० ति०) (सु० स०) बिचारति हैं कवि के...। ७. (रा०- पु० प्र०) (रा० पु० का०) अबनी पहि . (स०प्र०) सहोदर...! ६ सं० प्र०)(सु'० ति०) (सुसं०) मिली...! १०. (रा० पु० प्र०) (रा० पु० का०) सीप-हि ।

  • 9 नि० (मि० दा०) १० १७, ५०। (सु. ति०) (भारतेंदु) २६,९८७

सु० स० (मन्नालाल) २३, २१ । न० सि० ह० (१० जु०) १४६, १३ ।,