पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२४२

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काव्य-निर्णय २०७ "बसि बीस हजार पयोनिधि में बहु भातिनि सीत की भीत सही। कवि 'देव' जू स्यों चित चाँह घनी, सुचि संगति-मुक्तनहूँ की गही ॥ इहि भाँति जु कीन्हों सबै तप-जान, सो रीति कळूक न बाकी रही। मजहूँ न इते पर सीप सबै, इन कानन की सँमता न लही ॥" हेतुत्रेच्छा लच्छन बरनन दोहा जथा- हेतु-फलॅन के हेतु है-सिद्ध-असिद्ध बखाँन । 'होंनी सिद्ध' प्रसिद्ध कों, अनहोंनी पैंहचान ।। अथ सिद्ध-बिषया हेतुन्प्रेच्छा उदाहरन जथा- जौ कहों काहू के रूप ते रीमे, नौ और कौ रूप रिझावन बारौ। जौ कहों काहू के प्रेम-पगे हैं तो और कौ प्रेम-पगावन बारौ ॥ 'दास' जू दूसरौ" भेव न और, इतौ अबसेर लगाळून बारौ। जॉनति हो गयौ भूलि गुपालै, अहो पंथ इतै करि श्रावन बारी॥. अस्य तिलक इहा पंथ ( मार्ग, रास्ता) भूलिबौ सिद्ध-विषया है, अचरज (युक्त ) नाही। वि०--"जब अहेतु को हेतु ( जो उत्प्रेक्षा का कारण न हो उसे कारण ) मान कर उत्प्रेक्षा की जाय, तब वहाँ उक्त उत्प्रेक्षा कह इसके सिद्ध-असिद्ध विषय- रूप दो भेद किये जाते हैं । सिद्धा, अर्थात् उपेक्षा का विषय - उसका अास्पद अाधार रूप विषय सिद्ध हो-संभव हो, तथा असिद्धा-जहाँ उत्प्रेक्षा का अाधार- रूप विषय श्रसिद्ध हो-असंभव हो, तब वहां ये दोनों 'उत्प्रेक्षा' कही जायगी। अलंकार-मंजरी के रचयिता पोदारजी ने यहाँ "जॉनति हों" इस वाक्यांश को केवल संभावना-वाचक शब्द विशेष मान कर तथा उपमेय-उपमान-भाव न होने के कारण उक्त 'उत्पक्षा' नहीं मानी है। उनका कहना है कि "लक्षण में प्रस्तुत और अप्रस्तुत का कथन लक्षण-मात्र है, क्योंकि हेतूनच्छा और फलोत्प्रेक्षा में उपमेय-उपमान-भाव के बिना भी उपेक्षा होती है जो कि यहाँ नहीं है, इत्यादि...," पर श्रापका यह कथन यहाँ कुछ समझ में नहीं पाता । दासजी ने पा०-१. (सं० प्र०) को । २ (सं० प्र०) विधान । ३. (का०) (३०) (प्र०) शृ. नि०) सों । ४. (प्र०) (सु० स०) (र० कु०) के । १. (' नि०)...दूसरी बात...। __* नि० (दास ) पृ० १७२ । २० कु० (भयो०), पृ० १३८, ३६६ । सु० स० (म० ला०), पृ० १४६, ४ । अ० म०, (क० पो०) पृ० १३३, २२० ।