पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२४३

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२०० काव्य-निर्णय यहाँ हेतु का सिद्ध-विषय "भूलना"-"प्राश्चर्य नहीं" रूप से स्फुट कर दिया है, जो उचित है और उक्त अलंकार का पोषक है । दासजी ने इस छंद ( सवैया ) को अपने "शृगार-निर्णय" में "उत्कंठिता" का संक्षिप्त नामांतर "उत्का' (कहे हुए संकेत-स्थल में प्रिय ! नायक ) के न श्राने के कारणों पर वितर्क--शंका करने वाली ) नायिका के प्रथम उदाहरण में दिया है और 'रस-कुसुमाकर' के कर्ता ने "मध्या उत्कंठिता के उदाहरणों में संकलित किया है। दासजी के 'प्रथम' से यहाँ-मुग्धा उत्कंठिता का संकेत मिलता है, क्योंकि नायिका-भेद के ग्रथों में उत्कंठिता वा उत्का--मुग्धा, मध्या, प्रौढा, परकीया और गणिका-रूप से पांच प्रकार की मानी गयी है । मुग्धा नायिका रति-सुख से अबोध होने के कारण लज्जा-वश किसी से भी अपने मन की कोई बात नहीं कहती...। अतएव इसे लक्ष कर रस-कुसुमाकर के संग्रह कर्ता ने दासजी के इम छंद को "मध्या उत्कंठिता" के उदाहरणों के साथ संग्रह किया है । नायिका-भेद के ग्रथों से जाना जाता है कि मध्या नायिका भी काम-विवश होते हुए, लज्जा का पल्ला नहीं त्यागती और- "मन-ही-मन पीर पिरैको करे" के अनुसार उसी में घुली-मिली रहती है। स्वजन-सखी श्रादि से भी अपने मन की बात कहने में संकोच का अनुभव करती है, जैसा निम्न उदाहरणों में- उझिकै मुकि झूमि झरोखन-झांकि, झकै गुरु लोगन-पेठति भोंनें । कवि 'बनी' उठे छिन ऐंठि भुजा, छिन भेंटति मोहन के भ्रम पोंनें ॥ अति ब्याकुल मन-मई तन में, दुख बूझ सखीन के है रही मनें । दई हाइ रह्यो धो लुभाइ कहूँ, चित साचति लाल लटू करयो कोंने ॥" अथवा "बिरमे, कहुँ कोऊ प्रबीन मिली तिय, कै तौ मिल्यौ 'कबिराज' समाज है। काहू की चातुरी में चित लाग्यौ, किधों उरमयो कहूँ काहू के काज है। जो न कहों तो रह्यौ न पर, जु कहों तो कहे पर भावति लाज है। भाइवे को इहि ओर धों काहे ते, आज प्रबार करी ब्रजराज है।" अस्तु,- "करार कर के न माया वो संग-दिल काफिर । पड़े करार 4 फत्तर, ये कुछ करार हुआ ॥" --कोई शायर