पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२४४

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का निर्णय २०६ दासजी के इस छंद के दासजी-मतानुसार ही पाठ रूप दो मत है। प्रथम पाठ जो मूल में दिया गया है, आपके ग्रंथ 'काव्य-निर्णय' की प्रतियों के अनुसार है। दूसरा पाठ दासजी ने अपने द्वितीय ग्रंथ 'श्रृंगार-निर्णय' में, और न कुछ थोड़े-से शब्द-परिवर्तन के साथ 'रस-कुसुमाकर' और 'सुंदरी-सर्वस्व' में दिया गया है, वे इस प्रकार हैं । 'शृंगार-निर्णय,' यथा -- "जौ 'कहों' काह के रूप-'सों रीझ तौ और 'कौ' रूप-रिझावनवारी' । जो कहों काहू के प्रेम-पगे हैं, वो और 'को' प्रेम-'पगावॆनवारी' ॥ 'दास' जू दूसरी बात न और, इती 'बड़ी' बेर बितावनवारी। जॉनति हो गई भूलि 'गुपाल', गली ‘यहि' भोर की भावनवारी ॥" "रसकुसुमाकर"- जो 'कहों' काहू के रूप-रिझऐ' तौ और 'के' रूप-रिझावनवारी। जौ 'कहों' कह के प्रेम-पगे हैं, तो और 'के' प्रेम-पगावनवारो॥ 'दास' जू दूसरी बात न और, इती 'बड़ी' बेर बितानवारी । जॉनति हो गई भूलि 'गुपालै', गली 'पहि' मोर की भावनवारी॥" 'सुदरी-सर्वस्व'- 'जो कहूँ' काहू के रूप-से रिमे, तौ और 'के' रूप-रिझावनवारी। 'जो कहूँ' काहू के प्रेम-पगे हैं तो और 'के' प्रेम-पगावनवारी ॥ 'दास' जू दूसरी बात न और इती 'बड़ि' बँर वितावनवारी। जॉनति हो गई भूलि 'गुपालै', गली इहिं' मोर की भाबनवारी ॥ इन कोम-संनद्ध शब्दों में तनिक-ही अंतर है, मौलिक अंतर नहीं, जैसे- 'बारौ' और 'बारी' में। अंतिम चरण का एक सुंदर पाठ और भी मिलता है, यथा- "जनिति हो गई भूलि उन्हें, गली इहि मोर की भावनवारी॥" "थमा न प्रश्क, न नोंद भाई, ना पलक झपकी। बसा है जब से वह खानाखराब प्रांखों में॥" प्रसिद्ध-विषया हेतुत्प्रेच्छा उदाहरन जथा- स'-दिनन में है रहे भगिन-कॉन में भाँन । जॉनति हों जादौ पती, वासों रे निदान ।। पा०-१. (सं० प्र०) स...। २. (२० प्र०) मैं जान्यों जाडवै क्लो, लोक डरे...।