पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२८१

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२४६ काव्य-निर्णय अस्य तिलक इहाँ ब्यंगारथ ( राम श्री बिस्नु को ) रूपक है, बस्तु ते अलंकार । अथ अभेद रूपक हीनोक्ति उदाहरन जथा- सब के देखत ब्योम-पथ, गयौ सिंध के पार । पच्छिराज' बिन-पच्छ को, बीर सँमीर-कुमार ॥ वि०-"जहाँ उपमेयोपमान अभिन्न होते हुए भी किसी हीनता से प्रथक् जान पड़े, वहाँ अभेद रूपक हीनोक्ति कही जायगी।" पुनः उदाहरन जथा- कंज के संपुट हैं पै२ खरे, हिय में गडिजात ज्यों कुत की कोर हैं। मेरु हैं पै हरि-हाथ में बत, चक्रवती पै बड़े ही कठोर हैं । भाँमती, तेरे उरोजन में गुन 'दास' लखें तिन प्राति न ओर हैं। संभु हैं, पै उपजाबें मनोज, सुवृत्त हैं, पं पर-बित्त के चोर हैं ।।. अस्य तिलक इहाँ बितरेक' ( जहाँ उपमेय में उपमान से अधिकता वा न्यूनता दिखलाई जाय ) और रूपक को संकर ( जहाँ दो अलंकार जल और दूध के समान मिले हुए हों) है। वि०--"दासजी कृत यह उदाहरण भी "हीन अभेद रूपक" का है। कन्हैया- लाल पोद्दार ने अलंकार-मंजरी (१०२, १४८ ) में कहा है कि “स्तनों में जिन पा०-१. ( रा० पु० प्र०) (रा० पु० नी० सु०) पच्छिराज ज्यों पच्छ-विन । २. ( का०) (प्र) ए...। (सं० प्र० प्र०) पै खरौ...। ३. ( सु० ति० ) (सु० स० ) (न० ह०), कुतल-कोर है। ४. (म० म० तृ० क० ) के...। ५. (प्र० ) ( र० कु. ) ( का० प्र०) न...। ६. (सं० प्र०) बड़ौई कणेर...। ७. (न० ह० ) के.. | 4. ( का०)(३०) (प्र०) दास लख्यो सव और-ई और हैं । (सु० ति०) (सु० स० )( न० १०) (र० कु० ) ( का० प्र०) ( म० मं० तृ०) ( का० का० )...दास लखे ब और-हीं और है। (सं० पु० प्र० )...लखे सब ठौर-ही और... ६ . ( न० ह० ) भु बित्त हैं...। (म० म० तृ० ) ( का० का० ) सु बित्त हैं...। १०. ( रा० पु० प्र०) बित्त.... ___ न० सि० ह० (परमानंद सुहाने ) पृ० ५२, ११ । सु. ति० ( भारतेंदु ) पृ० २५६, ५७१ । सु० स० (मन्नालाल ) पृ० १०५ । म० मं० ( तृ० क०-अजान कवि ) पृ० १५, ६६।-द्वि० सं०, पृ० १६, २२ । र० कु० (अयोध्या) १० १४२ | का० प्र० (भानु) पृ० २८० । अ० म० (पोद्दार ) पृ० १०२, १४८ । स० स० (ला० भ०) पृ० २७७, ३४ । का० का० (चक्रधरसिंहू) पृ० ११ ।