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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२८३

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२४८ काव्य-निर्णय किये हैं। ब्रज-साहित्य-जगत् में 'परकीया स्वाधीन-पतिका' का यह उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है- "उझकि झरोखा है ममकि झुकि झाँकी बॉम, भूलि गई स्याम जू की खबर तमासा की। 'कहै पदमाकर' हूँघाँ चैत-चाँदनी-सी, फैलि रही तैसिऐ सुगंध सुभ स्वाँसा की ॥ तैसी छबि तकत तमोर की, तरोनन की, वैसी छबि बसँन की, बारन की, बासा की। मोतिन की, माँग की, मुख-हू की, मुसिक्यॉन-हूँ की, नेनन की, नथ की, निहारिबे की, नासा की।" अस्तु "बन के तस्वीर 'हिजाब' उसका सरापा देखो। मुँह से बोलो न कुछ, आँख से तमाशा देखो ॥" एक बात और -वह यह कि दासजी कृत इस छंद के विविध 'पाठ' विविध संग्रह ग्रंथों में मिलते हैं, जिससे इसकी लोक-प्रियता प्रकट होती है। यहाँ सर्वमान्य एक पाठ दिया जाता है, यथा- "कज के संपुट है, पै खरे हिऐ गड़ि जाति ज्यों कुंतल-कोर हैं। मेरु हैं, पै हरि-हाथ में पाबत, चक्रवती 4 बड़े-ही कठोर हैं। भाँवती तेरे उरोजन के गुन 'दास' लखे सब भौर-ही भोर हैं। संभु हैं, पै उपजाबें मनोज, सुवृत है, पै पर बित्त के चोर हैं।" ___ अथ रूपक-भेद कथन जथा- रूपक होत 'निरंग' पुनि' 'परंपरित' 'परिनॉम'। अरु समस्त-विषयक' कहें', विविध भाँति अभिराँम ॥ वि०-"जैसा पूर्व में रूपक की परिभाषा के साथ कहा जा चुका है कि" रूपक प्रथम 'अभेद' तथा 'तद्र प' दो शाखाओं में विभक्त होकर फिर 'सम, अधिक, और 'न्यून' जिसे हीन भी कहते हैं, में पल्लवित होता है और तव 'सम- अभेद रूपक' के 'सावय' (सांग ), 'निरवयव' (निरंग ) और 'परंपरित' रूप बनते हैं। इसके वाद सावयव के 'समस्त-विषयक' वा 'समस्त वस्तु-विषयक' पा०-१. (३०) पै... । २. (३० ) कहूँ ।