पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३२२

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८२७
काव्य-निर्णय

८२७ काव्य-निर्णय रिस-भरी भोह ज्यों भोंरा-से भरबरात, इंद-तर आयौ मकरंद-हित अरबिंदा। 'नंददास'-प्रभु ऐसी काहे को रुसैरे बाल, जाके मुख देखे ते मिटत दुख-दंदा ॥" पद की व्याख्या अनावश्यक है, राग 'अड़ाने की जोरदार स्वाभाविक ऐड पद-पद और शब्द-शब्द से बरस रही है। "सर उठाओ, बुत बने बैठे हो क्यू ? मानो, मान जाओ, खुदा के वास्ते ॥" जैसा कि पूर्व में रसलीन' ने कहा है--मान प्रकट करने के तीन-"मुख-परि, कै पीछे, किधों चुप है रहै उदास' प्रमुख प्रसाधन हैं। उसी प्रकार मान भी "लघु, मध्यम और गुरु रूप से तोन प्रकार का होता है और उसके निवारण के उपाय भी तीन-ही होते हैं, यथा- "सैहजै हाँसी-खेल में, बिन-बचन हुँन काँन । पाँइ-परें निय के मिटै, लघु, मध्यम, गुरु-गाँन ॥ -भाषा-भूषण लघु मान के वर्णन में किसी कवि की यह अति अनूटो उक्ति है, ब्रज-भाषा- साहित्य में इसकी जोड़ नहीं है, जैसे- माँनी न मानवति भयौ भोर, सु सोच ते सोइ गयो मन भाँवन । तिहि ते सास कही, दुलही, भई बार कुमार को जाहु जगाबन ॥ मान को रौस, जगवे की लाज, लगी पग नूपुर पाटी बजावन । सो कबि-हरि हिराह रहे हरि, कोंन को रूसिवी काकौ मनावन ॥" रूपकातिसयोक्ति लच्छन जथा- बिदित जाँन उपमान' कों, कर्थेन काव्य में देखि । 'रूपकातिस जुक्ति' सो, बन' एकता लेखि ।। वि०-"नहीं उपमेय का कथन न कर केवल उपमान के कथन-द्वारा उप- मेय का वर्णन किया जाय, उपमेयोपमान दो पदार्थ होने के कारण और उनमें भेद होते हुए भी उपमेय का कथन न कर केवल उपमान का-हो कथन-वर्णन पा०-१. (सं० पु० प्र०) ( का०) (व) उपमाहि...। २. (रा० पु० प्र०) (रा- पु. का०) बर्म्य...