काप-निर्णय मथ ब्याजस्तुति-लच्छन जथा- मप्रस्तुत परसंस और 'ब्याजस्तुति' की बात । कहूँ भिन्न ठेहेरात है, कहूँ जुगल मिल जात ॥ वि०-"व्याजस्तुति के विषय में संस्कृत-अलंकाराचार्यों का कहना है कि "व्याजस्तुतिमु खेनिंदा स्तुतिर्वा रूढिरन्यथाः" (काव्य-प्रकाश-१०,१६६) अर्थात्, 'ध्याजस्तुति' उस अलंकार को कहते हैं जिससे प्रारंभ में तो निंदा वा स्तुति प्रकट हो, पर परिणाम में तद्विरीत अर्थ से उमका तात्पर्य प्रकट हो। ____ व्याजस्तुति के दो भेद श्री मम्मट (काव्य-प्रकाशकार) ने भी माने हैं, क्यों- कि उन्हें वहां स्तुति-पर्यवसायिनी केवल निंदा-ही विवक्षित नहीं-निंदापर्यव- सायिनी स्तुति भी अभीष्ट थी। प्राचीन अलंकाराचार्यों में जिनमें भामह और उद्भट प्रधान हैं, की दृष्टि में केवल एक निंदा के व्याज स्तुति-परक अर्थ-ही मुख्य रहा, दूसरा नहीं । अतः उद्भट कहते हैं- "शब्दशक्तिस्वभावेन पत्र निदेव गम्यते । वस्तुतस्तु स्तुतिः श्रेष्ठा व्याजस्तुतिरसौ मता ॥ अर्थात्, ब्याजस्तुति का सोंदर्य प्रस्फुटन इसी में है कि शब्दों की अभि- धायक शक्ति निंदा का बोध भले ही करावे, पर साथ-ही पदार्थ-पर्यालोचन के द्वारा जो वाक्यार्थ निकाले वह स्तुति-परक ही हो। अतएव मम्मट-मतानुसार 'व्याज- स्तुति' दो प्रकार की -व्याजरूपा स्तुति और निंदा-व्याज-रूपा स्तुति बन गयी, किंतु भामह-उद्भटादि प्राचीन अलंकाराचार्य प्रणीत व्याजस्तुति का केवल एक ही रूप- व्याज से, निंदा के बहाने स्तुति रह गया, जिसको मम्मट के साथ बाद के प्राचार्यों ने नहीं माना नहीं माना। व्याजस्तुति का शन्दार्थ है-"बहाने से स्तुति"। यह बहाना-"निंदा से स्तुति का अथवा स्तुति से निंदा का" कहा जा सकता है। अतएव दास जो के कथनानुसार “इनमें स्तुति निदा मिले, व्याजस्तुति पैहचान" के बाद "अप्रस्तुत प्रशंसा और ब्याजस्तुति अलंकार का विषय कहीं मिला हुआ और कहीं मित्र" देखा जाता है। यहाँ निंदा के व्याज स्तुति करना तो ठीक, पर स्तुति के बहाने निंदा करना दूसरी बात है। अतएव ब्रजभाषा के अलंकाराचार्यों ने संस्कृत अलंकारा- चार्यों द्वारा कथित “व्याजिन-स्तुति" (व्याजेन स्तुतिः-म्याजेन वा स्तुति-निंदा के बहाने स्तुति) और "व्याजला-स्तति" (स्वति का बहाना मात्र) रूप एक ही पा०-२. (का०) (३०) (प्र०) भरु...। २. (का०)100) (०) भर" .
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