पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३५२

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अथ पाच्छेपालंकार बरनन जथा- जहाँ बरजिऐ कहि है, अबसि करौ यै काज । मुकर परत जिहिं बात कों, मुख्य वही जहँ राज ॥ अस्य भेद जथा- दूखि मापने कथन कों, फेरि कहे' कछु और । 'आच्छेपालंकार' के, जॉनों तीनों डौर ॥ वि.-"संस्कृताचार्यों ने 'अध्यवसायमूलक गम्य-प्रधान अल कारों में 'आक्षेपाल कार ( जहाँ विवक्षित अर्थ का किसी प्रकार से निषेध-सूचित हो- विवक्षित अर्थ का निषेध जैसा किया जाय,) को अंतिम अलकार मानते हुए इसके 'उक्ताक्षेप, व्यक्ताक्षेप और निषेधाक्षेप' नाम से तीन भेद किये हैं। श्राक्षेप का शब्दार्थ है-अपवाद, कटूक्ति, व्यंग्यादि.., पर मूलतः इसका अर्थ 'फेंकना-'अपने पास की वस्तु को दूर फेंकना' होता है। संस्कृताचार्यों ने इसका अर्थ 'निषेध' भी माना है, क्योंकि इसमें कथित बात का निषेध भी होता है। इस निषेधात्मक चमत्कार की प्रधानता के कारण ही इस अलकार का यह नाम पड़ा है। अतएव उक्त अल कार में कहीं 'निषेध' और कहीं 'विधि' का श्राभास होने से ऊपर लिखे तीन भेद माने गये हैं। उद्भट ने जो ब्राक्षेप का लक्षण प्रस्तुत किया है- प्रतिषेध इवेष्टस्य यो विशेषाभिषिस्सया । भाप इति त संतः शंसंति कवयः सदा ॥ अर्थात् , कवि-वाणी में कुछ ऐसी भंगिमापूर्ण विचित्र शब्दावली हुआ करती है जिसमें वह अर्थ, जिसका विधान करना अभीष्ट हो उसे कुछ ऐसे निषेध के ब्याज से वर्णित किया जाता है कि निषेध होने पर भी वह विधि के अंतिम रूप में परिणत हो जाता है-चमत्कार-जनक बन जाता है । अस्तु, मम्मट-मान्य श्राक्षेप- लक्षण के स्वरूप वर्णन में भी उक्त निषेध का स्पष्ट वर्णन है, फिर भी वहां कारिका में-वृत्ति में ... निषेधोनिषेध इव' कहकर इस निषेध को निषेधाभास के रूप में स्वीकार किया गया है, जो कि श्राक्षेप अलकार का प्राण है और जिसके बिना उक्त अलंकार का वाच्य-वैचित्र्य बनना असंभव है। अलंकाराचार्यों (संस्कृत और ब्रजमाषा दोनों ) में इस अलंकार के भेदों में विवाद है। कोई इसके दो ('निषेधाभास श्राक्षेपो वक्ष्यमाणोक्तगो विधा- फा०-१. (३० ) कर... । २. (प्र० 1 को... ।