३२६ काव्य-निर्णय व्यंग्याथ में विरोध प्रतीति न हो तो वहाँ उक्त अलंकार नहीं, उसकी ध्वनि होगी। वस्तुतः उक्त अलंकार, कवि-प्रतिभा का शब्द रूपावतार है, जो अपनी विवक्षा से प्रजापति की सृष्टि में परिवर्तन कर नीरस को भी सरस बना देता है- कठोर में भी कोमलता का सृजन करता है । प्रथम बिरुद्धालंकार जथा- कहत, सुनत, देखत जहाँ, है कछु नमिल-बात चमतकार-जुत-अरथ जुत, सो “बिरुद्ध" औदात' ॥ वि०-"जहाँ कहते, सुनते और देखते चमत्कार से पूर्ण अर्थ-युक्त अन- मिल ( बिना मेल प्रथम कही हुई के विरुद्ध) वात कही-सुनी जाय वहाँ 'विरुद्धालंकार' होता है, ऐसा दासजी का अभिमत है। संस्कृत-अलंकाराचायों की भाँति भाषा-भूषण-रचयिता ने भी 'विरुद्धालंकार' को 'विरोधाभास' नाम देते हुए, इसका विषय उन्हीं की भांति - "भासै जबै बिरोध-सौ, वहै "विरोधाभास"" माना है, अर्थात् जहाँ वास्तविक विरोध न होकर विरोध-सा भासित हो, वहाँ यह अलंकार होता है-बनता है । यह विरोध का श्राभास जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य के वर्णनों में, एक के प्रति दूसरे का पारस्परिक रूप में प्रकट होता है, जैसा श्री दासजी ने "विरुद्धालंकार" के भेद करते हुए कहा है । यथा- अंथ विरुद्धालंकार-भेद बरनन जथा- जाति-जाति, [न-जाति औ क्रिया-जाति भवरेख । जाति-द्रव्य, गुन-गुन क्रिया, किया-क्रिया-गुन लेख । क्रिया-द्रव्य, गुँन-द्रब्य श्रो, द्रब्य-द्रब्य पैहचान। . ए दस भेद बिरुद्ध के, गंने सुमति उर-भान ।। वि.-"उक्त दस भेदों से अलंकृत "विरुद्धालंकार'-जाति का जाति से, जाति का गुण से, जाति का क्रिया से, जाति का द्रव्य से, गुण का गुण से, गुण का क्रिया से, गुण का द्रव्य से, क्रिया का क्रिया से, क्रिया का द्रव्य से, द्रव्य का द्रव्य से माना जाता है। पा०-१. (का०) (३०) (५०) अवदात.... २. (३०) गन.... ३. (१०) मैंनो.....
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