३२७ काव्य-निर्णय विरोधाल कार में यह आवश्यक है कि कही हुई बातों में विरोध स्पष्ट दिखलाया जाय, पर वास्तविक विरोध न हो। वास्तविक विरोध-प्रदर्शन होने पर वह दोष बन जायगा । यहाँ विरोध ऐसा हो जिसका उचित कारणों से समा- धान किया जा सके, हों कि यहां विरोध न होकर विरोध का आभाष मात्र है। यो तो विभावना, विशेषोक्ति और विरुद्ध ये तीनों-ही अलकार विरोध-मूलक है, प्रथम दो (विभावना-विशेषोक्कि) में विरोध संकुचित है- अपवाद रूप में आता है, विरुद्ध में उत्सर्ग के रूप में, अर्थात् पूर्णतः प्रदर्शित किया जाता है । पहिले दोनों में विरोध कार्य-कारण संबंध से होता है, इसमें कार्य-कारण का कोई संपर्क नहीं होता। विभावना में कारण का अभाव अपूर्णतादि वाधक है, कार्य वाध्य है । कारण का अभाव वास्तविक है और कार्य कल्पित है तथा विशे- षोक्ति में इसके विपरीति, उलटा । इसमें कारण वाधक है तथा कार्य का अभाव वाध्य है, अर्थात् कारण के प्रस्तुत रहते भी कार्य के न होने की कल्पना की जाती है। उपरोक्त (विभावना-विशेगोक्ति) दोनों में वास्तविक तथा कल्पित में विरोध रहता है । विरुद्ध में दोनों-हो वाध्य-वाधक होते हैं और दोनों ही सम- बल के होते हैं।" प्रथम विरुद्ध “जाति-जाति सों को उदाहरन जथा- प्रॉनन'-हरत, न धरत उर, नेकु दया को साज । एरी, ये द्विजराज भौ, कुटिल कसाई आज ॥ अस्य तिलक इहाँ 'रूपक' भंग है, जाति-गुन सों बिरुद्ध ।" वि० - "इस उदाहरण में "द्विजराज" और "कसाई" दोनों हो जाति- वाचक शब्द है, दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी हैं, पर विरह-दशा में दोनों को सम (बराबर) कहा गया है।" द्वितीय विरुद्ध "जाति सों क्रिया" को उदाहरन जथा- दरसावत थिर दामिनी, केलि-तरुनि-गति देत । तिल-प्रसून सुरभित करत, नौतन विध मख-केत ।।* अस्य तिलक " "रूपकातिसै-उक्ति' अपरांग है, जाति क्रिमा सो विद। . । 10-१. (१० पु० प्र०) प्रान-हरत नहि...! २. (प्र०) इति...!
- भाभू०. (केबिया)१० २१४।