पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९३

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३५८ काव्य-निर्णय उल्लेख करते हुए "अनुज्ञा" नाम का एक नया अलकार लिखा । 'लेश', 'विचित्र' और 'सामान्याल कार' भी मिलते हैं, "स्वगुण' अलकार का (संस्कृत और ब्रजभाषा ग्रंथों में ) कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता । इससे ज्ञात होता है कि उक्त (स्वगुण) अलंकार दासजी की देन है । रुद्रट-जन्य जो 'पिहित' अलंकार था, यद्यपि वह संस्कृत अलकार-'मीलित' में समा गया, फिर भी वह ब्रजभाषा के अलकार-प्रथों में अब भी दर्शन दे देता है। किंतु समझ में नहीं पाता कि पिहित (छिपाना ) मीलित ( मिला हुश्रा ) में कैसे घुल-मिल गया जब कि दोनों का अर्थ विभिन्न है। ___ दासजी मान्य इन अल कारों का संस्कृतानुसार पूर्व लिखित वर्गीकरण में भेद है, भिन्न मत हैं, भिन्न नाम हैं-जैसे, 'विरोध मूल' - विचित्र और विशेष, न्यायमूल---सामान्य, संसर्गमून'-मीलित, उन्मीलित, तद्गुण, अतद्गुण, पूर्वरूप, अनुगुण, उल्लास, अवज्ञा, लेश" और 'प्रकीर्णक'-अनुज्ञा कहा गया है। इस उल्लास में, दासजो ने सर्वप्रथम 'उल्लास' अलकार का उसके पांचों भेदों के माहित वर्णन किया है, इसके बाद अवज्ञा-अनुज्ञादि अल कारों का । संस्कृत-अलकार ग्रंथों में "अवज्ञा' के दो भेद-"गुण से गुण" और "दोष से दोप" की प्रामि" रूप में माने गये हैं। दासजो ने इन दोनों के अतिरिक्त दो भेद-“जहाँ दोप ते गुन नहीं." तथा-"जहँ गुन ते दोषी नहीं०...को प्राति पर भी माने हैं । ब्रजभाषा के अन्य अलकाराचार्यों ने ये भेद नहीं माने हैं। अवज्ञा के बाद अनुज्ञादि अल कारों का आपने सांगोपांग वर्णन किया है।" अथ “उल्लास" अलंकार बरनन जथा- औरॅन के गुन-दोष ते, औरैन' के गँन-दोष । बरनत यो 'उल्लास' हैं, कवि-पंडित मति-कोस'. ॥ वि०-"जब एक के गुण-दोष से दूसरे के गुण-दोष प्रकट किये जाय -वर्णन किये जाय, तव अलंकाराचार्य “उल्लास" का विषय मानते हैं । संस्कृत-व्याकरणा- नुसार 'उल्लास' की व्युत्पत्ति 'उत्' और 'लश' से मानी गयी है, जिसका अर्थ होता है-"प्रबल दोप-संबंध" । कोई-कोई 'प्रकाश' और 'प्रसन्नतादि' (अर्थ) भी. मानते हैं । इस प्रकार उल्लास में "एक पदार्थ के प्रबल गुण-दोष के संबंध से दूसरे को गुण-दोष प्राप्त होना कहा जाता है, जिससे इसके चार भेद-"गुण से पा०-१. २. (का०) (३०)(प्र०) औरै...। ३. (३०) चोष . ।