३६८ काव्य-निर्णय होहवे बारी बात को बरतमान-सौ बरनॅन है वे ते 'भूत-भाविक' और 'भविष्य- भाषिक' बनत हैं। वि०-"भूतकालिक 'भाविक का' वर्णन 'प्रोषित नायक' के उदाहरण स्वरूप यह सवैया भी बहुत सुंदर है, यथा- "साहस के, बस के, रिस के, जब माँगी विदेस-विदा मृदु-बॉन सों। सो सुनि बाल रही मुरझाइ, दही बर-बेलि ज्यों धीर-दबान सों॥ नेन, गरौ, हियरी भरि भायौ, पै बोलि न भायौ कछु वा सुजॉन सों। सालें अजों हिय-मौझि गडी, वे बड़ी अँखियाँ, उमड़ी फँसुवान सों॥" "जॉम-भरे दिन है चलिबौ, सुनि प्यारी निसा सब रोबति खोई। हों कयौ रोईऐ न, जैऐ घरै, यै रोइबौ तौ सुनि है सब कोई ॥ सोई 'निगज' सदाँ सुधि सालति, साहस कै कै चली पग दोई। भाधिक दूरि-लों भाइ चितै, पुनि भाइ गरें लपटाइ के रोई ॥" ये दोनों छंद भूतकालिक वर्णन को वर्तमान जैसा वर्णन करने के हैं, भविष्य-भाविक के भी दो उदाहरण देखिये, जैसे- "ग-लाल, बिसाल, उनीदे कछु, गरबीले-जजीले-से पेखहिंगे। कब धों बिथुरी - सुथरी अलके, झपकी पलकें प्रबरेखहिँ गे॥ 'कयि संभु' सुधारति भूपन-भेष, बिलोकनि यों जग-लेखहिंगे। भंगरात उठी रति - मंदिर ते, कब-धों वो मौमती देखहिंगे।" "भीतर ते उठि-आवति देखि, कबै वो बाल भुजा-भरि लै है। 'सेखर' कंठ-नगाइ के पीछे ते, आंनद के अँसुवाँन अन्है है। कंत भले, भजे बोल के साँचे, कहो तुम हो हम वा दिन ऐ हैं। भौधि-गऐ यों तिया-घर आइ, कबै हम हाइ उराहनों पै हैं।" अथ प्रहरषन अलंकार-लच्छन जथा- जतन-घने' करि थाकिए, बांछित यों-ही जासु । बांछित थोरो, लाभ अति', दैव-जोग ते बासु ॥ पा०-१. (सं० पु० प्र०)(का.) (प्र.) घनी...। (३०) यत धनी...। २. (प्र.) थापिए...। ३. (प्र.) साज । ४.(प्र.) बहु...। ५. (प्र.) भाज...!
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