पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४४८

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४१३ काव्य-निर्णय पूत सपूत, सुलच्छनी, तँन भरोग, धन-धंध । स्वामि-कृपा, संगति सुमति, सौनों और सुंगंध । अस्य तिलक इहाँ समुच्च के तीसरे उदाहरन में "सोंनों और सुगध' ते 'दृष्टांतालंकार' अपरांग है । अरु सब पर्दैन में बहु भावन को गुंफैन है। वि०-"सेठ कन्हैयालाल पोदार ने अपनी 'अलंकार-मंजरी' में द्वितीय समुच्चय के प्रथम उदाहरण-"धैंन, जोबॅन, बल, अग्यता....” को प्रथम समुच्चय के द्वितीय भेद असद्योग ( असत् साधकों का योग होना ) के उदाहरण में मान कर लिखा है-'धन-यौवनादि चारों में एक-हो उचितानुचित का विचार न रहने के लिये पर्याप्त है, पर यहाँ - 'धन-यौवनादि' चारों असतों का समुच्चय ( इकट्ठा होना ) कहा गया है।" हमारो अल्प बुद्धि से भी ये तीनों उदाहरण प्रथम समुच्चय के तीन भेद-स्वरूप- सत् , असत् और असदसत् (तृतीय छंद- सद्योग का, प्रथम छंद-असद्योग का और द्वितीय छंद सद्सद्योग का) के उदाहरण हैं, जिससे समुच्चय के दोही भेद, जैसे कि भाषा-भूपण-श्रादि में वर्णन किये गये हैं बन जाते हैं, पर 'काव्य-निर्णय' की हस्त-लिखित विशेष - प्रतियों में उक्त संपूर्ण उदाहरणों को तीन भागों में विभक्त कर शीर्षकों में प्रथम, द्वितीय और तृतीय "समुच्चय उदाहरण जथा-" लिखा है, जो उचित नहीं है। साथ ही इन तीनों छंदों का क्रम भी ठीक नहीं है। इनका क्रम प्रथम- "पूत-सपूत....", द्वितीय- न-जोबॅन०..." और तृतीय-"नांतो नीचौ०..." इस प्रकार होना चाहिये। दासनो-कृत प्रथम छंद-"धैन-जोबनादि०" संस्कृत के इस नोति-वाक्य का सुंदर अनुवाद है, यथा-- "यौवनं धनसपत्ति, प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयं ॥" किसी अज्ञात कवि को निम्नलिखित रचना भी ऊपर लिखे नीति-वाक्य रूप सूक्ति का उदाहरण है-अनुवाद है, यथा- "जोबन,धन,अविवेकता, प्रभुता में कोउ एक। करें अनर्थ, यहाँ सबं. रयो न कछु बिदेक ॥" अथ तृतीय समुच्चे-उदाहरन जथा- संस सकल चलाइके, चली मिलॅन-पिय बाँम । मन-बदन करि मापनों, सौत-बदन करि स्याँम ॥ पा०-१ (का० ) (३०) (सं० पु० प्र०) सुलन्छनो...!