४१४ काव्य-निर्णय वि०-"दासजी कृत तृतीय समुच्चय (दै अँनमिल इक भाइ ) स्वरूप यह छंद द्वितीय समुच्चय भेद-रूप "गुण-समुच्चय" का है, जो अरुणा और श्यामतादि दो गुणों के अनमिल योग का वर्णन है। क्रिया-समुच्चय ( द्वितीय समुच्चय का भेद विशेष ) का उदाहरण स्व. बा. जगन्नाथदास 'रत्नाकर' रचित 'उद्धवशतक' का यह छंद भी सुंदर है, यथा- "दीन-दसा देखि ब्रज-बालनि की उधब कौ-- गरिगी गुमान - ग्याँन - गौरव गुगने-से । को 'रतनाकर' न आए सुख देंन - नेन,- नीर-भरि ल्याए भए सकुचि सिहाँने-से ॥ सुखे-से, मे-से- सम्यक-से, सकेसे, थके, भूले-से, भ्रम-से, भवरे-से, भकुत्राने से। होले-से, हले-से, हूले-हूले-से, हिए में हाइ, हारे-से, हरे-से, रहे हेरत हिरॉने-से ॥" अथ अन्योन्य-अलंकार लच्छन जया- होत परसपर जुगल सौ, सो 'अन्योन्य' सुछंद । "लसत चंद-सों जाँमिनी, जाँमिनि-हूँ' सो चंद ॥" वि०-"जहाँ युगल (दो) पदार्थों का परस्पर समान संबंध कथन हो- एक- ही क्रिया के द्वारा दो वस्तुओं की परस्पर कारणता का वर्णन हो वहाँ 'अन्योन्य' अलंकार कहा जाता है, जैसे- "लसत चंद सों जाँमिनी, जमिनि हूँ सों चंद।" अन्योन्य का वर्णन सर्व प्रथम रुद्रट ने तदनंतर मम्मट ने और इनके पश्चात् रुय्यक ने किया है। अतएव अलंकार-वर्गीकरण में प्रथम रुद्रट ने इसे 'वास्तव- वर्ग' में, तत्पश्चात् रुय्यक ने 'विरोध-मूलक वर्ग' में इसकी गणना की है। कोई इसे 'प्रकीर्ण' वर्ग में भी मानते हैं, जो उपयुक्त नहीं है। ____ काव्य-प्रकाश में इसका लक्षण-"एक ही क्रिया द्वारा दो पदार्थों की परस्पर-एक-दूसरे की कारणता कहने को" कहा गया है । इसी प्रकार साहित्य- दर्पण में भी-"अन्योन्यमुभयोरेकक्रियायाः करणं मिथः" (अन्योन्य तब, जब एक ही क्रिया को परस्पर करे) लक्षण लिखा गया है और उदाहरण, जैसा पा०-१. (का० ) (३०) (सं० पु० प्र०) ही...। २. (सं० पु० प्र०) ते...। (सं० पु० प्र०—दि०) जामिनी सों ज्यो...।
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